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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1725
ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - उषाः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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प्र꣢ति꣣ ष्या꣢ सू꣣न꣢री꣣ ज꣡नी꣢ व्यु꣣च्छ꣢न्ती꣣ प꣢रि꣣ स्व꣡सुः꣢ । दि꣣वो꣡ अ꣢दर्शि दुहि꣣ता꣢ ॥१७२५॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣡ति꣢꣯ । स्या । सू꣣न꣡री꣢ । सु꣣ । न꣡री꣢꣯ । ज꣡नी꣢꣯ । व्यु꣣च्छ꣡न्ती꣢ । वि꣣ । उच्छ꣡न्ती꣢ । प꣡रि꣢꣯ । स्व꣡सुः꣢꣯ । दि꣣वः꣢ । अ꣣दर्शि । दुहिता꣢ ॥१७२५॥


स्वर रहित मन्त्र

प्रति ष्या सूनरी जनी व्युच्छन्ती परि स्वसुः । दिवो अदर्शि दुहिता ॥१७२५॥


स्वर रहित पद पाठ

प्रति । स्या । सूनरी । सु । नरी । जनी । व्युच्छन्ती । वि । उच्छन्ती । परि । स्वसुः । दिवः । अदर्शि । दुहिता ॥१७२५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1725
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
(स्या) वह परमात्मरूप दीप्ति या परमात्मज्योति (सूनरी) उपासकों की सुनेतृत्व करनेवाली (जनी) उत्तम जीवन देनेवाली (स्वसुः परि) सम्यक् अज्ञान को फेंकनेवाली५ मानवीय ज्ञान से ऊपर (व्युच्छन्ती) अन्दर प्रकाशित होती हुई (दिवः-दुहिता प्रति-अदर्शि) मोक्षधाम की दोहने वाली उपासक के अन्दर प्रत्यक्ष होती हैं॥१॥

विशेष - ऋषिः—वामदेवः (वननीय परमात्मदेव वाला उपासक)॥ देवता—उषाः ४(परमात्मरूप दीप्ति या परमात्मा की ज्योति)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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