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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1725
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - उषाः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    44

    प्र꣢ति꣣ ष्या꣢ सू꣣न꣢री꣣ ज꣡नी꣢ व्यु꣣च्छ꣢न्ती꣣ प꣢रि꣣ स्व꣡सुः꣢ । दि꣣वो꣡ अ꣢दर्शि दुहि꣣ता꣢ ॥१७२५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र꣡ति꣢꣯ । स्या । सू꣣न꣡री꣢ । सु꣣ । न꣡री꣢꣯ । ज꣡नी꣢꣯ । व्यु꣣च्छ꣡न्ती꣢ । वि꣣ । उच्छ꣡न्ती꣢ । प꣡रि꣢꣯ । स्व꣡सुः꣢꣯ । दि꣣वः꣢ । अ꣣दर्शि । दुहिता꣢ ॥१७२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रति ष्या सूनरी जनी व्युच्छन्ती परि स्वसुः । दिवो अदर्शि दुहिता ॥१७२५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्रति । स्या । सूनरी । सु । नरी । जनी । व्युच्छन्ती । वि । उच्छन्ती । परि । स्वसुः । दिवः । अदर्शि । दुहिता ॥१७२५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1725
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में भौतिक उषा के दृष्टान्त से दिव्य उषा का वर्णन किया गया है।

    पदार्थ

    प्रथम—प्राकृतिक उषा के पक्ष में। (सूनरी) उत्तम नेत्री, (जनी) प्रकाश की जननी, (स्वसुः) बहिन रात्रि के (परि) समाप्तिकाल में (व्युच्छन्ती) अँधेरे को हटाती हुई, (दिवः) द्युलोक की (दुहिता) पुत्री (स्या) वह उषा (प्रति अदर्शि) पूर्व दिशा में दिखायी दे रही है ॥ द्वितीय—दिव्य उषा के पक्ष में। (सूनरी) योगमार्ग में उत्तम नेतृत्व करनेवाली, (जनी) मोक्ष की जननी, (स्वसुः) संसारमार्ग पर डालनेवाली अविद्या की (परि) समाप्ति पर (व्युच्छन्ती) उदित होती हुई, (दिवः) प्रकाशमय सविकल्पक समाधि की (दुहिता) पुत्री-तुल्य (स्या) वह ऋतम्भरा प्रज्ञा (प्रति अदर्शि) साक्षात् अनुभव में आ रही है ॥१॥ यहाँ श्लेष और स्वभावोक्ति अलङ्कार हैं ॥१॥

    भावार्थ

    १. ऋ० ४।५२।१। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रेऽस्मिन्नुषस इव स्त्रिया गुणानाह।

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    पदार्थ

    (स्या) वह परमात्मरूप दीप्ति या परमात्मज्योति (सूनरी) उपासकों की सुनेतृत्व करनेवाली (जनी) उत्तम जीवन देनेवाली (स्वसुः परि) सम्यक् अज्ञान को फेंकनेवाली५ मानवीय ज्ञान से ऊपर (व्युच्छन्ती) अन्दर प्रकाशित होती हुई (दिवः-दुहिता प्रति-अदर्शि) मोक्षधाम की दोहने वाली उपासक के अन्दर प्रत्यक्ष होती हैं॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—वामदेवः (वननीय परमात्मदेव वाला उपासक)॥ देवता—उषाः ४(परमात्मरूप दीप्ति या परमात्मा की ज्योति)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    विषय

    पुरुमीढ और अजमीढ

    पदार्थ

    प्रस्तुत मन्त्रों के ऋषि 'पुरुमीढ और अजमीढ' हैं। मीढ का अर्थ है ‘संग्राम'। ‘पुरु' का अर्थ है–पालक व पूरक, और 'अज' का का अर्थ है गति के द्वारा अशुभ का परे क्षेपन करनेवाला। जिनका संग्राम सचमुच जीवन में पूरणता को लानेवाला तथा गति के द्वारा अशुभ को दूर करनेवाला है वे 'पुरुमीढ व अजमीढ' हैं । ये १. पड़ोसियों के साथ व्यर्थ में लड़ाई झगड़े में नहीं पड़े हुए, २. न ही ये आर्थिक संग्रामों में उलझे हैं । इनका संग्राम तो ३. अध्यात्मसंग्राम है – ये काम-क्रोधादि को नष्ट करने में तत्पर हैं। ये उषः को प्रकाशित होते देखकर उषा से भी प्रकाश व ज्ञान का उपदेश लेते हैं और कहते हैं कि।

    (स्य) = अरे ! वह उषा (अदर्शि) = दिख रही है, जो १. (प्रतिसूनरी) = एक-एक मनुष्य को उत्तम प्रकार से नेतृत्व देनेवाली है— आगे और आगे ले चल रही है— सोये हुओं को मानो जगा रही है और क्रिया में प्रवृत्त होने के लिए प्रेरित कर रही है ।

    २. (जनी) = यह प्रादुर्भाव करनेवाली है— क्या क्रिया में प्रवृत्त करके यह मनुष्य का विकास न करेगी ? विकास के लिए ही तो यह ३. (स्वसुः परि) = स्वसा के तुल्य अपनी बहिन रात्रि के उपरान्त (वि-उच्छन्ती) = विशेषरूप से अन्धकार को दूर कर रही है। अन्धकार में विकास का सम्भव न था। इस उषा ने उस अन्धकार को दूर कर दिया है ४. यह उषा तो (दिवः) = प्रकाश की दुहिता पूरक है - दुह प्रपूरणे । =

    संक्षेप में कहने का अभिप्राय यह कि रात्रि में मनुष्य आराम से लेटा था। उसकी थकावट आदि दूर होकर तथा टूटे-फूटे घरों [Cells] का नवीनीकरण होकर मनुष्य रात में प्रफुल्ल हो जाता है। इसी से रात ‘स्वसा' कहलाई है— उत्तम स्थितिवाली, परन्तु तरोताज़ा होकर भी मनुष्य

    अन्धकार में किसी तरह की उन्नति नहीं कर सकता। उषा आती है १. अन्धकार को दूर करती है [वि उच्छन्ती], २. प्रकाश भरती है [दिवो दुहिता], ३. मनुष्य को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है [सूनरी], और ४. इस प्रकार उसके विकास को सिद्ध करती है [जनी]।

    भावार्थ

    हम उष:काल के काव्यमय सौन्दर्य से प्रेरणा प्राप्त करके जीवन को सुन्दर बनाने का निश्चय करें ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (स्या) वह (दिवः) सूर्य की (दुहिता) पुत्री उषा (परि स्वसुः) रात्रि के उपरान्त (व्युच्छन्ती) तम को दूर करती हुई, (सूनरी) उत्तम नेत्री रूप (जनी) स्त्री के समान (प्रति आदर्शि) प्रकट होती हैं। अथवा—(स्या सूनरी जनी) वह उषा उत्तम पुत्र उत्पन्न करने हारी, शुभ लक्षणों से युक्त स्त्री के समान (स्वसुः परि) अपनी भगनी के पीछे पीछे (व्युच्छन्ती) अपना रूप प्रकट करती हुई लोक में प्रकट होती है, उसी प्रकार यह (दिवः) आदित्य के समान प्रकाशमान योगी की (दुहिता) आनन्द रस का दोहन करने वाली ज्योतिष्मती प्रज्ञा (स्वसुः) स्वयं सरण करने वाली, आप से आप प्रकट होने वाली प्रतिभा के (परि) साथ साथ (जनी) उत्पन्न होती हुई ज्ञान उत्पन्न करने हारी (सूनरी) उत्तम मोक्ष मार्ग की नेभी होकर (प्रति अदर्शि) दिखाई देती है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः–१ विरूप आंङ्गिरसः। २, १८ अवत्सारः। ३ विश्वामित्रः। ४ देवातिथिः काण्वः। ५, ८, ९, १६ गोतमो राहूगणः। ६ वामदेवः। ७ प्रस्कण्वः काण्वः। १० वसुश्रुत आत्रेयः। ११ सत्यश्रवा आत्रेयः। १२ अवस्युरात्रेयः। १३ बुधगविष्ठिरावात्रेयौ। १४ कुत्स आङ्गिरसः। १५ अत्रिः। १७ दीर्घतमा औचथ्पः। देवता—१, १०, १३ अग्निः। २, १८ पवमानः सोमः। ३-५ इन्द्रः। ६, ८, ११, १४, १६ उषाः। ७, ९, १२, १५, १७ अश्विनौ॥ छन्दः—१, २, ६, ७, १८ गायत्री। ३, ५ बृहती। ४ प्रागाथम्। ८,९ उष्णिक्। १०-१२ पङ्क्तिः। १३-१५ त्रिष्टुप्। १६, १७ जगती॥ स्वरः—१, २, ७, १८ षड्जः। ३, ४, ५ मध्यमः। ८,९ ऋषभः। १०-१२ पञ्चमः। १३-१५ धैवतः। १६, १७ निषादः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ भौतिकोषर्दृष्टान्तेन दिव्यामुषसं वर्णयति।

    पदार्थः

    प्रथमः—प्राकृतिक्या उषसः पक्षे। (सूनरी) प्रकाशस्य सुनेत्री, (जनी) सूर्यस्य जनयित्री, (स्वसुः) स्वसृस्थानीयाया रात्रेः (परि) पर्यवसानकाले (व्युच्छन्ती) तमो विवासयन्ती। [वि पूर्वः उछी विवासे भ्वादिस्तुदादिश्च।] (दिवः) द्योतमानस्य द्युलोकस्य (दुहिता) पुत्रीस्थानीया (स्या) सा उषाः (प्रति-अदर्शि) प्राच्यां दिशि प्रतिदृश्यते ॥ द्वितीयः—दिव्याया उषसः पक्षे। (सूनरी) योगमार्गे सुष्ठु नेतृत्वकारिणी, (जनी) निःश्रेयसस्य जनयित्री, (स्वसुः) संसारमार्गे प्रक्षेप्त्र्या अविद्यायाः (परि) पर्यवसाने (व्युच्छन्ती) उदयन्ती, (दिवः) प्रकाशमयस्य सविकल्पकसमाधेः (दुहिता) पुत्रीव विद्यमाना (स्या) सा उषाः ऋतम्भरा प्रज्ञा (प्रति-अदर्शि) प्रतिदृश्यते, साक्षादनुभूयते ॥१॥२ अत्र श्लेषः स्वभावोक्तिश्चालङ्कारः ॥१॥

    भावार्थः

    यथा प्राकृतिक्युषा रात्रेर्निविडं तमो निवार्य भूतले प्रकाशं जनयति तथैव योगमार्गे ऋतम्भरा प्रज्ञा योगविघ्नानपास्याध्यात्मप्रसादं प्रयच्छति ॥१॥ जैसे प्राकृतिक उषा रात्रि के घोर अँधेरे को हटाकर भूतल पर प्रकाश उत्पन्न करती है, वैसे ही योगमार्ग में ऋतम्भरा प्रज्ञा योग के विघ्नों को दूर करके, अध्यात्म-प्रसाद देती है ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    This lady, Dawn, the daughter of Sun, an excellent path shower, is seen by all, at the end of night, her sister.

    Translator Comment

    Pt. Jaidev Vidyalankar has translated this verse as applicable also to a Yogi, his knowledge and emancipation of his soul.

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    Meaning

    That joyous dawn, pioneer of the sun, harbinger of the new day, shining at the departure of her sister, the night, rises to view every morning as the daughter of heaven, arousing the world to fresh life. (Rg. 4-52-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (स्या) તે પરમાત્મારૂપ દીપ્તિ અથવા પરમાત્મ જ્યોતિ (सूनरी) ઉપાસકોનું સુ-નેતૃત્વ કરનારી, (जनी) ઉત્તમ જીવન આપનારી, (स्वसुः परि) સમ્યક્ અજ્ઞાનને ફેંકનારી, માનવીય જ્ઞાનથી ઉપર, (व्युच्छन्ती) અંદર પ્રકાશિત થતી, (दिवः दुहिता प्रति अदर्शि) મોક્ષધામને દોહનારી ઉપાસકની અંદર પ્રત્યક્ષ થાય છે. (૧)

     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशी प्राकृतिक उषा रात्रीचा घोर अंधार दूर हटवून भूतलावर प्रकाश उत्पन्न करते, तसेच योगमार्गात ऋतंभरा प्रज्ञा योगाच्या विघ्नांना दूर करून अध्यात्मप्रसाद देते. ॥१॥

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