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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 177
ऋषिः - दध्यङ्ङाथर्वणः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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दो꣣षो꣡ आगा꣢꣯द्बृ꣣ह꣡द्गा꣢य꣣ द्यु꣡म꣢द्गामन्नाथर्वण । स्तु꣣हि꣢ दे꣣व꣡ꣳ स꣢वि꣣ता꣡र꣢म् ॥१७७॥

स्वर सहित पद पाठ

दो꣣षा꣢ । उ꣣ । आ꣣ । अ꣣गात् । बृह꣢त् । गा꣣य । द्यु꣡म꣢꣯द्गामन् । द्यु꣡म꣢꣯त् । गा꣣मन् । आथर्वण । स्तुहि꣢ । दे꣣वम् । स꣣वि꣡ता꣢रम् ॥१७७॥


स्वर रहित मन्त्र

दोषो आगाद्बृहद्गाय द्युमद्गामन्नाथर्वण । स्तुहि देवꣳ सवितारम् ॥१७७॥


स्वर रहित पद पाठ

दोषा । उ । आ । अगात् । बृहत् । गाय । द्युमद्गामन् । द्युमत् । गामन् । आथर्वण । स्तुहि । देवम् । सवितारम् ॥१७७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 177
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 7;
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पदार्थ -
(द्युमद्गामन्) हे द्युतिमान् परमात्मा को प्राप्त करने वाले ज्ञानी उपासक! “द्युमन्तं गच्छतीति ‘द्युमत्’ उपपदपूर्वकाद् गाधातोर्मनिन् प्रत्ययः” “आतो मनिन्०” [अष्टा॰ २.२.७४] (आथर्वण) अत्यन्त स्थिर मन वाले (बृहद्गाय) बहुत गुणगायक मुमुक्षु जन। (दोषा-उ-आगात्) अरे रात्रि आ रही है—आने वाली है, अतः उससे पूर्व-पूर्व (सवितारं देवं स्तुहि) उत्पादक प्रेरक सुखैश्वर्यप्रद परमात्मा की स्तुति कर।

भावार्थ - प्रकाशमान परमात्मा को प्राप्त करने वाले स्थिरमना गुणगायक मुमुक्षु जन! रात्रि में सायं समय तथा जीवन की निशा से पूर्व ही युवावस्था में उत्पादक प्रेरक विविध भोग और आनन्द के दाता परमात्मा की स्तुति निरन्तर किया कर॥३॥

विशेष - ऋषिः—दध्यङ्ङाथर्वणः (‘दधि-ध्यानमञ्चति प्राप्नोति दध्यङ्’-ध्यानशील अथर्वा ‘स्थिरमनाःसोऽति-शयितः’ मन की स्थिरता करने में कुशल)॥<br>

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