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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 200
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
3
इ꣡न्द्रो꣢ अ꣣ङ्ग꣢ म꣣ह꣢द्भ꣣य꣢म꣣भी꣡ षदप꣢꣯ चुच्यवत् । स꣢꣫ हि स्थि꣣रो꣡ विच꣢꣯र्षणिः ॥२००॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्रः꣢꣯ । अ꣣ङ्ग꣢ । म꣣ह꣢त् । भ꣣य꣢म् । अ꣣भि꣢ । सत् । अ꣡प꣢꣯ । चु꣣च्यवत् । सः꣢ । हि । स्थि꣣रः꣢ । वि꣡च꣢꣯र्षणिः । वि । च꣣र्षणिः ॥२००॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रो अङ्ग महद्भयमभी षदप चुच्यवत् । स हि स्थिरो विचर्षणिः ॥२००॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्रः । अङ्ग । महत् । भयम् । अभि । सत् । अप । चुच्यवत् । सः । हि । स्थिरः । विचर्षणिः । वि । चर्षणिः ॥२००॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 200
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 9;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 9;
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पदार्थ -
(इन्द्रः) परमात्मा (महत्-भयम्) भारीभय को (अङ्ग) शीघ्र “अङ्गेति क्षिप्रनाम” [निरु॰ ५.१७] (अभीषत्) अभिगत करता है तथा दबा देता है (अपचुच्यवत्) च्यवित कर देता है—नष्ट कर देता है, (सः-हि) वह ही (स्थिरः-विचर्षणिः) नितान्त विशेष द्रष्टा है।
भावार्थ - परमात्मा अपने उपासक के भारी भय को भी शीघ्र दबाता है और सर्वथा नष्ट कर देता है, वह ही अपने उपासकों के दुर्गुणों और अन्य विघ्नकर्ताओं को नितान्त देखता, उपासक अपने ऊपर आए भय न जान सकें पर वह तो जानता है॥७॥
विशेष - ऋषिः—गृत्समदः (मेधावी हर्षालु या स्तोता और हर्षालु)॥<br>
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