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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 207
ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
3
य꣢द्वी꣣डा꣡वि꣢न्द्र꣣ य꣢त्स्थि꣣रे꣡ यत्पर्शा꣢꣯ने꣣ प꣡रा꣢भृतम् । व꣡सु꣢ स्पा꣣र्हं꣡ तदा भ꣢꣯र ॥२०७॥
स्वर सहित पद पाठय꣢त् । वी꣣डौ꣢ । इ꣣न्द्र । य꣢त् । स्थि꣣रे꣢ । यत् । प꣡र्शा꣢꣯ने । प꣡रा꣢꣯भृतम् । प꣡रा꣢꣯ । भृ꣣तम् । व꣡सु꣢꣯ । स्पा꣣र्ह꣢म् । तत् । आ । भ꣣र ॥२०७॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्वीडाविन्द्र यत्स्थिरे यत्पर्शाने पराभृतम् । वसु स्पार्हं तदा भर ॥२०७॥
स्वर रहित पद पाठ
यत् । वीडौ । इन्द्र । यत् । स्थिरे । यत् । पर्शाने । पराभृतम् । परा । भृतम् । वसु । स्पार्हम् । तत् । आ । भर ॥२०७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 207
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 10;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 10;
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पदार्थ -
(इन्द्र) ऐर्श्ववन् परमात्मन्! (स्पार्हं वसु) स्पृहणीय वसु—वसा हुआ—व्यापा हुआ स्वरूप (यत्-वीडौ) जो बल वाले सूर्य जैसे पदार्थ में या सत्त्वगुण में (यत् स्थिरे) जो ठोस पृथिवी जैसे पिण्ड में अग्नि में या तमोगुण में (यत् पर्शाने) जो तरल मेघ जैसे पदार्थ में “पर्शानः-मेघनाम” [निघं॰ १.१०] “स्पृश धातोः आनच् प्रत्यय औणादिकः सकारलोपश्च छान्दसः” [उणा॰ २.९०] विद्युत् में या रजोगुण में (पराभृतम्) तूने अपना स्वरूप भरा हुआ है (तत्-आभर) उसे मेरे अन्दर भरपूर कर।
भावार्थ - परमात्मन्! तूने अपना अन्य में बसने वाला—व्यापने वाला जो स्वरूप सत्त्वगुण में रजोगुण में तमोगुण में तीनों गुणों में भरा है या सूर्य में विद्युत् में अग्नि में तीनों ज्योतियों में भरा है “तस्य भासा सर्वमिदं विभाति” [कठो॰ ५.१५] या प्रकाशपिण्ड सूर्य में दोलायमान तरल पदार्थ मेघ में ठोस पदार्थ पृथिवी में भरा हुआ है इन सबको अपने व्यापन स्वरूप को मुझ उपासक के अन्दर भर दे॥४॥
विशेष - ऋषिः—त्रिशोकः (तीनों ज्ञान ज्योति से सम्पन्न)॥<br>
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