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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 227
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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आ꣢ या꣣ह्यु꣡प꣢ नः सु꣣तं꣡ वाजे꣢꣯भि꣣र्मा꣡ हृ꣢णीयथाः । म꣣हा꣡ꣳ इ꣣व꣢ यु꣡व꣢जानिः ॥२२७॥

स्वर सहित पद पाठ

आ꣢ । या꣣हि । उ꣡प꣢꣯ । नः꣣ । सुत꣢म् । वा꣡जे꣢꣯भिः । मा । हृ꣣णीयथाः । महा꣢न् । इ꣣व । यु꣡व꣢꣯जानिः । यु꣡व꣢꣯ । जा꣣निः ॥२२७॥


स्वर रहित मन्त्र

आ याह्युप नः सुतं वाजेभिर्मा हृणीयथाः । महाꣳ इव युवजानिः ॥२२७॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । याहि । उप । नः । सुतम् । वाजेभिः । मा । हृणीयथाः । महान् । इव । युवजानिः । युव । जानिः ॥२२७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 227
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 12;
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पदार्थ -
(नः) हमारे (सुतम्) निष्पन्न उपासनारस के प्रति—उसे स्वीकार करने के लिये (वाजेभिः) अपने अमृत सुख भोगों के साथ (उपायाहि) समीप आ (मा हृणीयथाः) मत क्रोध करना ‘हृणीयते क्रुध्यतिकर्मा’ [निघं॰ २.१३] (महान् युवजानि-इव) महान् युवति पत्नी वाले के समान।

भावार्थ - हे परमात्मन्! हमारे निष्पादित उपासनारस को प्राप्त हो, स्वीकार कर, अपने अमृत भोगों के साथ, तू हम पर कभी क्रोध नहीं करना जैसे युवति पत्नी वाला अपनी सुखभोग युवति पत्नी पर क्रोध नहीं करता। हम तेरे प्रति सदा उपासनारस प्रदान में समर्थ हैं॥५॥

विशेष - ऋषिः—मेधातिथिप्रियमेधावृषी (मेधा से अतन गमनशील और प्रिय है मेधा जिसको ऐसे उपासक)॥<br>

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