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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 228
ऋषिः - दुर्मित्रः कौत्सः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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क꣣दा꣡ व꣢सो स्तो꣣त्रं꣡ हर्य꣢꣯त आ꣡ अव꣢꣯ श्म꣣शा꣡ रु꣢ध꣣द्वाः꣢ । दी꣣र्घ꣢ꣳ सु꣣तं꣢ वा꣣ता꣡प्या꣢य ॥२२८॥
स्वर सहित पद पाठक꣣दा꣢ । व꣣सो । स्तोत्र꣢म् । ह꣡र्य꣢꣯ते । आ । अ꣡व꣢꣯ । श्म꣣शा꣢ । रु꣣धत् । वा꣡रिति꣢दी꣣र्घ꣢म् । सु꣣त꣢म् । वा꣣ता꣡प्या꣢य । वा꣣त । आ꣡प्या꣢꣯य ॥२२८॥
स्वर रहित मन्त्र
कदा वसो स्तोत्रं हर्यत आ अव श्मशा रुधद्वाः । दीर्घꣳ सुतं वाताप्याय ॥२२८॥
स्वर रहित पद पाठ
कदा । वसो । स्तोत्रम् । हर्यते । आ । अव । श्मशा । रुधत् । वारितिदीर्घम् । सुतम् । वाताप्याय । वात । आप्याय ॥२२८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 228
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 12;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 12;
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पदार्थ -
(वसो) हे सबमें बसनेवाले परमात्मन्! (स्तोत्रं हर्यते) मेरे स्तोत्र-स्तवन—स्तुतिवचन को चाहते हुए तुझसे प्रार्थना करता हूँ (श्मशा) यह आनन्दरस बहानेवाली धारा “श्मशा शु अ अश्नुत इति वाश्माश्नुन इति वा” [निरु॰ ५.१२] (कदा-वाः-आ-अवरुधत्) कब तक आनन्दरस को बन्द रखेगी (दीर्घं सुतं वाताप्याय) कभी से—बहुत काल से निष्पादित उपासनारस मुझ स्तोता की ओर लाने के लिए चालू होगी।
भावार्थ - सबमें बसने वाले परमात्मन्! तू स्तुतिवचन को चाहने वाला है, तेरे आनन्दरस को रोकने वाली धारा कब तक रुकी रहेगी? कभी तो चालू होगी ही क्योंकि दीर्घकाल से यह निष्पन्न उपासनारस तेरे प्रति समर्पण किया जा रहा है कभी तो मुझे अपना आनन्दरस प्रवाहित करने को प्रेरित करेगा॥६॥
विशेष - ऋषिः—कौत्सो दुर्मित्रः (अतिशय से स्तोमों स्तुतियों को करने वाला—दुष्ट का भी मित्र—सर्व हितैषी)॥<br>
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