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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 228
    ऋषिः - दुर्मित्रः कौत्सः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    18

    क꣣दा꣡ व꣢सो स्तो꣣त्रं꣡ हर्य꣢꣯त आ꣡ अव꣢꣯ श्म꣣शा꣡ रु꣢ध꣣द्वाः꣢ । दी꣣र्घ꣢ꣳ सु꣣तं꣢ वा꣣ता꣡प्या꣢य ॥२२८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क꣣दा꣢ । व꣣सो । स्तोत्र꣢म् । ह꣡र्य꣢꣯ते । आ । अ꣡व꣢꣯ । श्म꣣शा꣢ । रु꣣धत् । वा꣡रिति꣢दी꣣र्घ꣢म् । सु꣣त꣢म् । वा꣣ता꣡प्या꣢य । वा꣣त । आ꣡प्या꣢꣯य ॥२२८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कदा वसो स्तोत्रं हर्यत आ अव श्मशा रुधद्वाः । दीर्घꣳ सुतं वाताप्याय ॥२२८॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कदा । वसो । स्तोत्रम् । हर्यते । आ । अव । श्मशा । रुधत् । वारितिदीर्घम् । सुतम् । वाताप्याय । वात । आप्याय ॥२२८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 228
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 6
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 12;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में भौतिक तथा दिव्य वर्षा की कामना करता हुआ कोई कह रहा है।

    पदार्थ

    प्रथम—भौतिक वर्षा के पक्ष में। बहुत समय तक वर्षा न होने पर जल के अभाव से पीड़ित मनुष्य कहता है—हे (वसो) निवासप्रद इन्द्र जगदीश्वर ! वर्षा के लिए (स्तोत्रम्) स्तोत्र को (हर्यते) आपके प्रति पहुँचाते हुए मेरे लिए (कदा) कब (श्मशा) वर्षाजल से परिपूर्ण नदी या नहर (वाः) जल को (आ अवरुधत्) लाकर खेत, जलाशय आदि में रोकेगी? मैनें (वाताप्याय) वर्षा-जल के लिए (दीर्घम्) लम्बे समय तक (सुतम्) वृष्टियज्ञ किया है ॥ द्वितीय—अध्यात्म-वर्षा के पक्ष में। दिव्य आनन्दरस से परिपूर्ण परमेश्वर के पास से आनन्दरस की वर्षा की कामना करता हुआ साधक कह रहा है—हे (वसो) मुझ निर्धन के धन, निवासदाता जगदीश्वर ! आनन्दरस की वर्षा के लिए (स्तोत्रम्) स्तुति को (हर्यते) आपके प्रति पहुँचाते हुए मेरे लिए (कदा) कब (श्मशा) आपके पास से बहती हुई आनन्दरस की धारा (वाः) आनन्दरस को (आ अवरुधत्) लाकर मेरे हृदयरूप क्षेत्र या जलाशय में रोकेगी? हे रसागार ! चिरकालीन दुःख के दावानल से दग्ध मैंने (वाताप्याय) दिव्य आनन्द-जल की वर्षा के लिए (दीर्घम्) लम्बे समय तक (सुतम्) श्रद्धारस प्रस्रुत करते हुए अध्यात्म-यज्ञ निष्पन्न किया है। तो भी आनन्द-रस की वर्षा मुझे क्यों नहीं प्राप्त हो रही है? ॥६॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥६॥

    भावार्थ

    जैसे अनावृष्टि होनेपर वर्षा के लिए लम्बा वृष्टि-यज्ञ किया जाता है, वैसे ही आनन्द-रस का प्यासा मैं आनन्द-रस की वर्षा को पाने के लिए दीर्घ ध्यान-यज्ञ चिरकाल से कर रहा हूँ। तो भी हे प्रभो, क्यों आप आनन्द-वारि नहीं बरसा रहे हैं? बरसाओ, बरसाओ, हे देव, दिव्य आनन्द को बरसाओ। नहीं तो अनेक प्रकार से सांसारिक संतापों से संतप्त हुआ मैं जीवन धारण भी नहीं कर सकूँगा ॥६॥

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    पदार्थ

    (वसो) हे सबमें बसनेवाले परमात्मन्! (स्तोत्रं हर्यते) मेरे स्तोत्र-स्तवन—स्तुतिवचन को चाहते हुए तुझसे प्रार्थना करता हूँ (श्मशा) यह आनन्दरस बहानेवाली धारा “श्मशा शु अ अश्नुत इति वाश्माश्नुन इति वा” [निरु॰ ५.१२] (कदा-वाः-आ-अवरुधत्) कब तक आनन्दरस को बन्द रखेगी (दीर्घं सुतं वाताप्याय) कभी से—बहुत काल से निष्पादित उपासनारस मुझ स्तोता की ओर लाने के लिए चालू होगी।

    भावार्थ

    सबमें बसने वाले परमात्मन्! तू स्तुतिवचन को चाहने वाला है, तेरे आनन्दरस को रोकने वाली धारा कब तक रुकी रहेगी? कभी तो चालू होगी ही क्योंकि दीर्घकाल से यह निष्पन्न उपासनारस तेरे प्रति समर्पण किया जा रहा है कभी तो मुझे अपना आनन्दरस प्रवाहित करने को प्रेरित करेगा॥६॥

    विशेष

    ऋषिः—कौत्सो दुर्मित्रः (अतिशय से स्तोमों स्तुतियों को करने वाला—दुष्ट का भी मित्र—सर्व हितैषी)॥<br>

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    विषय

    प्राणायाम के तीन लाभ

    पदार्थ

    इस मन्त्र का ऋषि ‘दुर्मित्रः कौत्सः' है। ‘कुथ हिंसायाम्' धातु से कौत्स शब्द बना है,
    यह ‘काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर' इन छह शत्रुओं का संहार करता है, अतः कौत्स है। 'दुर्मित्र' की भावना यही है कि यह पापों व अपमृत्युओं से अपनी रक्षा करता है। काम-क्रोधादि का संहार करके ही तो वह ऐसा कर पाता है। इस दुर्मित्र कौत्स से प्रभु कहते हैं कि -

    १. (वसो)= हे उत्तम निवासवाले जीव! तेरे जीवन में (कदा) = कब (स्तोत्रम्) = प्रभु का स्तवन (हर्यते) = तेरी अन्तिम गति व तेरे काम्य प्रभु के लिए होगा, अर्थात् वह दिन कब आएगा जब तू काम-क्रोधादि में न उलझकर, उत्तम जीवनवाला बनकर मेरा स्तवन कर रहा होगा, जो मैं तेरी अन्तिम गति हूँ और तुझसे काम्य हूँ। मुझे प्राप्त कर, तू सभी कुछ प्राप्त कर लेता है। 

    २. (कदा)=कब (श्मशा)= शरीर में जाल की तरह बिछी हुई ये नसें (आ) = सर्वथा (वा:)=वीर्यशक्ति को (अवरुधत्)=अपने में रोकेंगी? श्मशा शब्द यास्क ने कुल्या का पर्याय माना है। कुल्या नहर है, नस-नाड़ियाँ भी शरीर की कुल्याएँ हैं। इनके अन्दर बहनेवाले रुधिर में वीर्य उसी प्रकार व्याप्त होता है, जैसे दूध में घृत। मन में जब किसी प्रकार के कुविचारों का मन्थन चलता है तो यह वीर्य रुधिर से उसी प्रकार अलग हो जाता है, जिस प्रकार दूध से घृत [ दही से मक्खन] । इस वीर्य के अलग होने पर रुधिर उतना ही अशक्त हो जाता है, जितना सपरेटा। न तो मनुष्य पूर्णरूपेण स्वस्थ रह पाता है और न ही उसका मस्तिष्क कोई गम्भीर अध्ययन कर पाता है। 

    ३. अब प्रभु जीव से कहते हैं (दीर्घं सुतम्) = अन्धकार का विदारण करनेवाला [दृ विदारणे] ज्ञान तुझे (कदा) = कब प्राप्त होगा। ज्ञान ही वासनान्धकार को विलीन करनेवाला होता है।

    एवं, प्रभु हमसे तीन बातें चाहते हैं १. हमारा झुकाव प्रकृति के भोगों की ओर न हो, हम प्रभु-स्तवन करनेवाले बनें, २. हम वीर्य का संयम करें और ३. हम अपने अन्दर ज्ञान-सूर्य का उदय करें। ये तीनों बातें कैसे होंगी?' इसके लिए मन्त्र के अन्तिम सम्बोधन में संकेत उपलभ्य है। (वाताप्याय) = हे वात को–अपने प्राणों को-आप्यायित-वृद्ध करनेवाले जीव! इस सम्बोधन के द्वारा प्रभु कह रहे हैं कि प्राणों की साधना करो - प्राणायाम करने पर मन्त्रनिर्दिष्ट तीनों ही बातें तुम्हारे जीवन में आ जाएँगी । निरुद्ध वीर्यशक्ति शरीर को नीरोग बनाएँगी, मन को प्रभु-प्रवण और मस्तिष्करूप द्युलोक को ज्ञान - सूर्य से दीप्त।

    भावार्थ

    हम प्राणायाम द्वारा शरीर को नीरोग, मन को पवित्र व ज्ञान को दीप्त बनाएँ।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = हे ( वसो ) = सबके प्राणाधार सबमें बसने और सबको बसाने वाले ! ( स्तोत्रं हर्यतः ) = स्तोत्र या वेदज्ञान का आहरण या लाभ करने पुरुष के लिये तुम ( कदा ) = कब ( श्मशा ) = शरीर के भीतर संचरण करने वाले ( वाः ) = जीवनरूप जल को ( आ  अवारुधद् ) = रोकत हो ? कभी नहीं । ( दीर्घ ) = दीर्घ लम्बा चौड़ा ( सुतं ) = जीवन ( वाताप्याय ) = प्राण को आयमन करने वाले को ही प्रदान करते हो ।

    टिप्पणी

    २२८ - 'आवश्मशा' इति ऋ० ।  
    १.  श्म  शरीरं, (निरु० ) 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     

    ऋषिः -कौत्सः दुर्मित्रः। 

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ भौतिकीं दिव्यां च वृष्टिं कामयमानः कश्चिदाह।

    पदार्थः

    प्रथमः—भौतिकवृष्टिपरः। चिरकालीनवृष्टिव्युपरमे सति जलाभावपीडितः कश्चिदाह। हे (वसो) निवासप्रद इन्द्र जगदीश्वर ! वृष्ट्यर्थम् (स्तोत्रम्) स्तोमम् (हर्यते) त्वां प्रति गमयते मह्यम्। हर्य गतिकान्त्योः शतरि चतुर्थ्येकवचने रूपम्। (कदा) कस्मिन् काले (श्मशा२) वृष्ट्युदकपूर्णा नदी कुल्या वा। श्मशा शु अश्नुते इति वा, श्म अश्नुते इति वा। निरु० ५।१२। (वाः) उदकम् (आ अवरुधत्) आनीय क्षेत्रजलाशयादौ अवरोत्स्यति। रुधिर् आवरणे धातोर्लेटि रूपम्। मया (वाताप्याय३) उदकाय। वाताप्यम् उदकं भवति, वात एतदाप्याययति। निरु० ६।२८। (दीर्घम्) दीर्घकालं यावत् (सुतम्) वृष्टियागो निष्पादितः। अथ द्वितीयः—अध्यात्मवृष्टिपरः। दिव्यानन्दरसपूर्णस्य परमेश्वरस्य सकाशादानन्दवृष्टिं कामयमानः कश्चिदाह। हे (वसो) निर्धनस्य मम धनभूत, निवासप्रद जगदीश्वर ! आनन्दरसवर्षणार्थम् (स्तोत्रम्) स्तुतिम् (हर्यते) त्वां प्रति गमयते मह्यम् (कदा) कस्मिन् काले (श्मशा) त्वत्सकाशात् प्रवहन्ती आनन्दवारिधारा (वाः) आनन्दरसम् (आ अवरुधत्) आनीय मदीये हृदयरूपे क्षेत्रे जलाशये वा अवरोत्स्यति ? हे रसागार ! चिरदुःखदावाग्निदग्धेन मया (वाताप्याय) दिव्यानन्दवारिवर्षणाय (दीर्घम्) सुदीर्घकालं यावत् (सुतम्) श्रद्धारसप्रस्रवणपूर्वकम् अध्यात्मयागो निष्पादितः। तथापि किमिति आनन्दवारिवर्षा मां न प्राप्नुवन्ति ॥६॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥६॥

    भावार्थः

    यथाऽनावृष्टौ जातायां वर्षणार्थं दीर्घो वृष्टियज्ञोऽनुष्ठीयते तथैवानन्दरसपिपासुरहमानन्दरसवृष्टिमाप्तुं दीर्घं ध्यानयज्ञं चिरादनुतिष्ठन्नस्मि। हे प्रभो ! तथापि किमिति त्वमानन्दवारि न वर्षयसि ? वर्षय, वर्षय, देव ! दिव्यानन्दं वर्षय। अन्यथा बहुविधसांसारिकसंतापसंतप्तोऽहं नोत्सहिष्ये जीवनमपि धारयितुम् ॥६॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १०।१०५।१ ‘आ अव’ इत्यत्र ‘आव’ इति पाठः। २. श्मशा-शब्देनापि कुल्योच्यते। लुप्तोपमं चेदं द्रष्टव्यम्। श्मशेव कुल्येवोदकम्। एतदुक्तं भवति यथा कुल्या उदकमवरुणद्धि तद्वत् कदा स्तोत्रम् अवरोत्स्यसि, श्रोष्यसीत्यर्थः—इति वि०। श्मशा वायुः। शु आशु अश्नुते इति श्मशा वायुः इति यास्कः। आ अभिमुखम् अवारुधत् अवरुन्धीत वाः उदकम् तव स्तोत्रं हर्यते कामयमानाय यजमानाय—इति भ०। कदा कस्मिन् काले अवारुधत् अवरोत्स्यसि, अवरुध्य च कदा वाः वारयिष्यति। अश्नुते क्षेत्रम् इति श्मशा कुल्या, लुप्तोपमम् एतत्। यथा कुल्येतस्तत उदकान्यवरुणद्धि अवरुध्य च वारयति तथेत्यर्थः—इति सा०। ३. वातं प्राणम् आप्यायति इति वाताप्यम् उदकम्। आपोमयः प्राण इति श्रुतेः—इति भ०। वातेन आप्यते अधस्तान्निपात्यते इति वाताप्यम् उदकम्—इति सा०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Omnipresent God, when do’st Thou impede the flow of life in the body of the recipient of the knowledge of the Vedas? Thou grandest long life to him who controls his breath.

    Translator Comment

    When dost Thou impede means Thou never impedest.

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    Meaning

    O Vasu, shelter home of life, when does the spirit inspire, impel and create the joyous song of celebration for Indra? When it controls the various flow of the mind, then the lasting soma is prepared for the ecstatic soul. (Rg. 10-105-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वसो) હે સર્વમાં નિવાસી પરમાત્મન્ ! (स्तोत्रं हर्यते) મારા સ્તોત્ર-સ્તવન-સ્તુતિ વચનને ચાહનાર તને પ્રાર્થના કરું છું (श्मशा) એ આનંદરસને વહાવનારી ધારા (कदा वाः आ अवरुधत्) ક્યાં સુધી આનંદરસને બંધ રાખશે. (दीर्घं सुतं वाताप्याय) દીર્ઘ સમયથી નિષ્પાદિત ઉપાસનારસ મારી-સ્તોતાની-સ્તુતિ કરનારની તરફ લાવવા માટે ચાલુ થશે. (૬)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : સર્વમાં નિવાસી પરમાત્મન્ ! તું સ્તુતિ વચનને ચાહનાર છે, તારા આનંદરસને રોકનારી ધારા ક્યાં સુધી રોકાઈ રહેશે ? ક્યારેક તો ચાલુ થશે જ, કારણકે દીર્ઘકાળથી એ નિષ્પન્ન ઉપાસનારસ તારા પ્રત્યે સમર્પણ કરવામાં આવી રહ્યો છે. ક્યારેક તો મને તારો આનંદરસ પ્રવાહિત કરવા માટે પ્રેરિત કરશે. (૬)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    اپنے پیاروں کو کب تک محروم رکھو گے؟

    Lafzi Maana

    (وسو) سب دل میں بسنے والے ایشور! (ہریتے ستو ترم کدا اوآرُ دھت) اپنے چاہنے والوں کے آنند رس کو آپ کب تک روکے رکھو گے؟ کبھی تو بہاؤ گے ہی (شمشا واہ) ہے پرمیشور! (واتا پیائے دیرگھم سُتم) لمبے عرصے سے بھگتی رس آپ کی بھینٹ کررہے ہیں۔ کبھی تو انتظار کی گھڑیاں ختم ہوں گی۔ آپ کے بخش آنند کی دھارا ہردے میں بہے گی۔

    Tashree

    مُنتظر ہوں دیکھتا راہ، کس طرف سے آ رہے، اپنے چاہنے والوں سے کیوں اِتنی دیر لگا رہے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जशी अनावृष्टी झाल्यावर वृष्टीसाठी मोठा वृष्टि-यज्ञ केला जातो. तसेच आनंदरसाचा अतृप्त मी आनंद-रसाची वृष्टी प्राप्त करण्यासाठी दीर्घ ध्यान-यज्ञ चिरकालापासून करत आहे. तरीही हे प्रभो! तू आनंद-वारीची बरसात का करत नाहीस? तेव्हा वृष्टी कर, वृष्टी कर, हे देव! दिव्य आनंदाची वृष्टी कर. अन्यथा अनेक प्रकारे सांसारिक संतापाने संतप्त झालेला मी जीवन धारण करू शकणार नाही. ॥६॥

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    विषय

    भौतिक आणि दिव्य वृष्टीची कामना

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) - (भौतिक वर्षापर) - दीर्घ काळापर्यंत पाूस न पडल्यामुळे जलाभावने व्यथित झालेला मनुष्य म्हणत आहे - हे (वसो) सर्वांना स्थान व घर देणाऱ्या इन्द्र परमेश्वरा, आम्ही पावसासाठी (स्तोत्रम्) आपणाकडे हे स्तोस्त्र वा प्रार्थना (हर्यते) पाठवीत आहोत. आता (कदा) केव्हा (रमशा) पावसाच्या पाण्याने भरलेली नदी वा कालवा (वाः) जलाला (आ अवरुधत्) अवरोध करून ते जल आमच्या शेतापर्यंत वाजलाशयापर्यंत आणतील, (याची आम्ही प्रतीक्षा करीत आहोत) मी (एक कृषक वा यजमान याने) (वाताप्याय) वर्षाजलासाठी (दीर्घम्) अति दीर्घ काळापासून (सुतम्) हा यज्ञ संपन्न केला आहे.।। द्वितीय अर्थ - (अध्यात्म - वृष्टिविषयी) - दिव्य आनंद रसाने परिपूर्ण परमेश्वराकडून आनंद रूप वृष्टीची कामना करीत एक साधक म्हणत आहे. हे (वसो) मी एक निर्धन, मला धन आणि निवासासाठी स्थान देणारे आपण हे जगदीश्वर, मी आनंद रस प्राप्तीसाठी (स्तोत्रम्) आपणापर्यंत स्तुतिवचने (हर्यते) पाठवीत आहे. आता मी वाट पाहत आहे की (कदा) केव्हा (रमशा) तुमच्याकडून वाहत येणारी आनंद रसधार (वाः) तो आनंद रस (आ अवरुधत्) आणून माझ्या हृदयरूप जलाशयात भरील. हे रसागार, चिरकालापासून दुःखरूप दावानलाने मी दग्ध होत आहे. (वाताप्याय) दिव्य आनंद वृष्टीच्या प्राप्तीसाठी मी (दीर्घम्) दीर्घ काळापर्यंत (सुतम्) माझ्या अंतःकरणातील श्रद्धारस प्रवाहित करीत अध्यात्म - यज्ञ निष्पन्न करीत आहे. तरीही ती आनंद रसाची वृष्टी हृदयावर का होत नाही ? ।।६।।

    भावार्थ

    जसे अनावृष्टी प्रसंगी लोक पावसाकरिता बृहद् वृष्टियज्ञ करतात, तद्वत हे प्रभु, तुमच्या आनंद रसाचा इच्छुक मी तो आनंद प्राप्त करण्यासाठी केव्हापासून दीर्घ ध्यान - यज्ञ करीत आहे. तरीही हे परमेश्वरा, तू आनंद वृष्टी का करीत नाहीस ? येऊ दे, होऊ दे, दिव्य आ्रनंदाचा तो पाऊस पडू दे अन्यथा विविध सांसारिक तापानी दग्ध झालेला मी जिवंत राहू शकणार नाही.।।६।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे.।।६।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    எப்பொழுது (வசுவே) என் தோத்திரத்தைக் கிரகிப்பாய் ? [1] நதியானது தாரையாய்க் கொண்டு வரட்டும். பிராணன் தூண்டும் ரசம் தயாராயிருக்கின்றது.

    FootNotes

    [1] நதியானது - தேகத்திலுள்ள

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