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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 229
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    27

    ब्रा꣡ह्म꣢णादिन्द्र꣣ रा꣡ध꣢सः꣣ पि꣢बा꣣ सो꣡म꣢मृ꣣तू꣡ꣳरनु꣢꣯ । त꣢वे꣣द꣢ꣳ स꣣ख्य꣡मस्तृ꣢꣯तम् ॥२२९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्रा꣡ह्म꣢꣯णात् । इ꣣न्द्र । रा꣡ध꣢꣯सः । पि꣡ब꣢꣯ । सो꣡म꣢꣯म् । ऋ꣣तू꣢न् । अ꣡नु꣢꣯ । त꣡व꣢꣯ । इ꣣द꣢म् । स꣣ख्य꣢म् । स꣣ । ख्य꣢म् । अ꣡स्तृ꣢꣯तम् । अ । स्तृ꣣तम् ॥२२९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्राह्मणादिन्द्र राधसः पिबा सोममृतूꣳरनु । तवेदꣳ सख्यमस्तृतम् ॥२२९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ब्राह्मणात् । इन्द्र । राधसः । पिब । सोमम् । ऋतून् । अनु । तव । इदम् । सख्यम् । स । ख्यम् । अस्तृतम् । अ । स्तृतम् ॥२२९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 229
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 7
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 12;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा और आचार्य की मित्रता की याचना की गयी है।

    पदार्थ

    प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशाली परमात्मन् ! आप (राधसः) ध्यान-यज्ञ के साधक (ब्राह्मणात्) वेद तथा ईश्वर के ज्ञाता मुझसे (ऋतून् अनु) ऋतुओं के अनुरूप, समयानुसार (सोमम्) मेरे मैत्री-रस का (पिब) पान कीजिए। मेरे साथ (तव) आपकी (इदम्) यह (सख्यम्) मित्रता (अस्तृतम्) अविनष्ट अर्थात् चिरस्थायी रहे ॥ द्वितीय—गुरुशिष्य के पक्ष में। हे (इन्द्र) विद्युत् के समान तीव्र बुद्धिवाले विद्यार्थी ! तू (राधसः) अध्ययन-अध्यापन यज्ञ के साधक (ब्राह्मणात्) ब्रह्मवेत्ता, वेदवेत्ता और ब्राह्मण स्वभाववाले आचार्य से (ऋतून् अनु) प्रत्येक ऋतु में (सोमम्) मेरे ज्ञान-रस को (पिब) पी। (तव) तेरी (इदम्) यह गुरुशिष्य-सम्बन्ध-रूप (सख्यम्) मित्रता (अस्तृतम्) अविनष्ट रहे ॥७॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥७॥

    भावार्थ

    जो परमात्मा और गुरु की मैत्री को प्राप्त करते हैं, वे सदा सुखी रहते हैं ॥७॥

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    पदार्थ

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (ब्राह्मणात्-राधसः) आराधना करनेवाले ब्रह्मचिन्तक उपासक के पास से (ऋतून्-अनु) योगाङ्गों के अनुसार “ऋतवः अष्टावङ्गानि” [तै॰ ७.५.२५.१] या उद्गीथ—प्रणवों के साथ “ऋतवः-उद्गीथः” [ष॰ ३.१] (सोमं पिब) उपासनारस को पान कर—स्वीकार कर (तव-इदं सख्यम्-अस्तृतम्) तेरा यह मित्रभाव अविनश्वर—स्थिर है। “स्तृणाति वधकर्मा” [निघं॰ २.१९]।

    भावार्थ

    परमात्मन्! तू आराधना करने वाले ब्राह्मण के पास से अष्टांग योग के अनुसार ओ३म् उद्गीथों के साथ उपासनारस को पान करता है यह तेरा मित्रभाव सदा स्थिर है रहा करे॥७॥

    विशेष

    ऋषिः—मेधातिथिः (मेधा से अतनशील अध्यात्म में प्रवेशशील विद्वान्)॥<br>

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    विषय

    आचार्य-शिष्य का सम्बन्ध

    पदार्थ

    गत मन्त्र में समाप्ति पर ('दीर्घं सुतम्') = अज्ञानान्धकार के नाशक ज्ञान का उल्लेख हुआ है, ‘यह ज्ञान कैसे प्राप्त होगा' इस बात का उल्लेख प्रस्तुत मन्त्र में है। जीव का ज्ञान नैमित्तिक है। प्रभु का ज्ञान स्वाभाविक है- सृष्टि के प्रारम्भ में प्रभु श्रेष्ठ, निर्दोष हृदयोंवाले 'अग्नि, वायु आदित्य, अङ्गिरा' ऋषियों को वेदज्ञान देते हैं। इस वेदज्ञान को अग्नि आदि से अन्य ऋषि प्राप्त करते हैं - उनसे अगले, और वे अगलों को ज्ञान देते हैं। इस प्रकार गुरु-शिष्य परम्परा से ज्ञान प्राप्त होता है । १. गुरु कैसे होने चाहिए? २. शिष्य का क्या कर्तव्य है? ३. और ज्ञान प्राप्ति का क्या नियम है? इन विषयों का प्रस्तुत मन्त्र में विचार है।
    (गुरु)=गुरु के गुणों का उल्लेख करनेवाले शब्द (ब्राह्मणात्) और (राधसः) हैं। १. (ब्राह्मणात्)=ब्राह्मण से, ब्रह्मवेत्ता से। जिसने अपरा विद्या के अध्ययन के अनन्तर पराविद्या भी पढ़ी हो उस आचार्य से विद्यार्थी को ज्ञान प्राप्त करना है। आचार्य को ज्ञान का समुद्र होना चाहिए। सभी विद्याओं का पारङ्गत आचार्य ही विद्यार्थी की श्रद्धा का आधार हो सकता है। वही स्वयं अग्निरूप होता हुआ विद्यार्थी में ज्ञानाग्नि को समिद्ध कर सकता है। २. (राधसः) = [राध-सिद्धि] सिद्धि को प्राप्त गुरु से । गुरु साधना को बहुत कुछ पूर्ण करके मन को वश में कर चुके हों। तभी वे विद्यार्थियों के आचार का निर्माण कर सकते हैं। एवं, आचार्य का मस्तिष्क ज्ञान से दीप्त हो और मन वशीभूत होने से निर्मल हो।

    (शिष्य)-ऐसे आचार्य से हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव! तू (सोमं पिब) = ज्ञान का पान कर। १. जो शिष्य इन्द्र= इन्द्रियों का अधिष्ठाता न होगा, वह ज्ञान को ठीक प्रकार से प्राप्त न कर सकेगा। ज्ञान तभी प्राप्त होता है, जब वह केवल विद्या का ही अर्थी हो। २. शिष्य के लिए दूसरा नियम यह है कि वह नियमपूर्वक विद्या का अध्ययन करे । मन्त्र में ‘ब्राह्मणात्' यह पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग इस नियमपूर्वक विद्याग्रहण का संकेत करता है। नियमपूर्वक विद्याग्रहण में ही ‘आख्यातोपयोगे' सूत्र से पञ्चमी विभक्ति आती है। यह भावना स्पष्ट शब्दों में भी (ऋतून् अनु) = शब्दों से व्यक्त हुई है। ऋतुएँ जैसे नियमित गति से आगे और आगे चल रहीं हैं उसी प्रकार विद्यार्थी को नियमित गति से अध्ययन करना चाहिए । 'ऋतु' शब्द नियमित गति का प्रतीक है। नियमित गति के बिना अध्ययन हो ही नहीं पाता।

    (अविच्छिन्नता से) – हे शिष्य (तव) = तेरा (इदम्) = यह (सख्यम्) = आचार्य के साथ ज्ञान-प्राप्ति के लिए हुआ-हुआ सम्बन्ध (अस्तृतम्) = अविच्छिन्न हो । तू सदा आचार्य के समीप रहकर अपने ज्ञान को बढ़ानेवाला हो। तू 'अन्तेवासी' बन।
    इस प्रकार विद्वान् एवं धार्मिक आचार्य के समीप रहकर नियम से ज्ञान प्राप्त करनेवाला जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी इस मन्त्र का ऋषि 'मेधातिथि'= निरन्तर ज्ञान की ओर चलनेवाला बनता है। कण-कण करके ज्ञान प्राप्तकर यह मेधावी बन जाता है। 

    भावार्थ

    आचार्य और विद्यार्थी का अविच्छिन्न सम्बन्ध ज्ञान की ज्योति को जगानेवाला हो।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = हे ( इन्द्र ) = आत्मन् ! ( ब्राह्मणात् ) = ब्रह्म को जानने हारे ( राधस: ) = साधना करने वाले विद्वान के ( सोमं ) = ज्ञान और अन्नादि रस को ( ऋतूम् अनु ) = प्राणों और इन्द्रियों के साथ ( पिब  ) = तू पान कर ।  ( तव ) = तेरा ( इदं ) = यह ( सख्यं ) = इन्द्रियों के या साधकों के साथ का मैत्रीभाव ( अस्तृतम् ) = कभी नहीं टूटता । 
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - मेधातिथिः। 

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मन आचार्यस्य च सख्यं प्रार्थ्यते।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमात्मपरः। हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् ! त्वम् (राधसः) ध्यानयज्ञसंसाधकात्। राध्नोतीति राधाः तम्। राध संसिद्धौ धातोः औणादिकोऽसुन् प्रत्ययः। (ब्राह्मणात्२) वेदेश्वरविदः मत्सकाशात्। ब्रह्म वेदम् ईश्वरं वा अधीते वेद वा स ब्राह्मणः ‘तदधीते तद्वेद’ इत्यस्मिन्नर्थे अण् प्रत्ययः। (ऋतून् अनु) ऋत्वनुरूपं यथाकालमित्यर्थः। (सोमम्) मदीयं मैत्रीरसम् (पिब) आस्वादय। मया सह (तव) त्वदीयम् (इदम्) एतत् (सख्यम्) सखित्वम् (अस्तृतम्) सदाऽविनष्टम्, तिष्ठत्विति शेषः। स्तृणातिः वधकर्मा। निघं० २।१९। अथ द्वितीयः—गुरुशिष्यपरः। हे (इन्द्र) विद्युद्वत्तीव्रबुद्धे विद्यार्थिन् ! त्वम् (राधसः) अध्ययनाध्यापनयज्ञसाधकात् (ब्राह्मणात्) वेदेश्वरविदो ब्राह्मणस्वभावात् आचार्यात् (ऋतून् अनु) ऋतौ ऋतौ (सोमम्) ज्ञानरसम् (पिब) आस्वादय। (तव) त्वदीयम् (इदम्) एतद् गुरुशिष्यसम्बन्धरूपम् (सख्यम्) सखित्वम् (अस्तृतम्) अविनष्टं तिष्ठतु ॥७॥३ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥७॥

    भावार्थः

    ये परमात्मनो गुरोश्च सख्यं प्राप्नुवन्ति ते सदा सुखिनो भवन्ति ॥७॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १।१५।५ ‘तवेदं’ इत्यत्र ‘तवेद्धि’ इति पाठः। २. (ब्राह्मणम्) वेदेश्वरविदम् इति य० ३०।५ भाष्ये द०। ३. ऋग्भाष्ये मन्त्रोऽयं दयान्दर्षिणा वायुपक्षे व्याख्यातः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O soul, drink deep with thy breaths and organs, the essence of knowledge from a learned person who is the worshipper and knower of God. Invincible is thy friendship!

    Translator Comment

    The friendship of the soul with a learned person is unconquerable.

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    Meaning

    Indra, pranic energy of air, according to the seasons drink the soma juices of nature from the earthly treasuries created by the Supreme Lord of the universe. The vital relation of life with you is universal and inviolable. (Rg. 1-15-5)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्र) હે પરમ ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (ब्राह्मणात् राधसः) આરાધના કરનાર બ્રહ્મચિંતક ઉપાસકની પાસેથી (ऋतून् अनु) યોગનાં અંગો અનુસાર અથવા ઉદ્ગીથ-પ્રણવોની સાથે (सोमं पिब) ઉપાસના રસનું પાન કર-સ્વીકાર કર (तव इदं सख्यम् अस्तृतम्) તારો એ મિત્રભાવ અવિનાશી-સ્થિર છે. (૭)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પરમાત્મન્ ! તું આરાધના કરનારા બ્રાહ્મણો-યોગીઓ પાસેથી અષ્ટાંગ યોગ અનુસાર ‘ओ३म्’ ઉદગીથોની સાથે ઉપાસનારસનું પાન કરે છે. એ તારો મિત્રભાવ સદા સ્થિર છે-રહ્યા કરે. (૭)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    آپ کا رِشتہ تہ ٹُوٹے!

    Lafzi Maana

    ہے اِندر (براہمنات رادھسا سومم پبا) سِدّھی حاصل کرنے والے برہم گیانیوں کے ذریعے بنائے گئے سوم رس کو منظور کیجئے (رِتون انو) جو موسموں کے مطابق ہے تاکہ (توُ) آپ کا اپنے پیارے اُپاسکوں کے ساتھ (اِدم سکھیم استرِتم) مترتا کا رشتہ اٹوٹ بنا رہے۔

    Tashree

    اِندر دیو پربھو ہمارے سوم رس کو پیجئے، مِترتا کی بھینٹ ہے مضبوط اِس کو کیجئے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जे परमात्मा व गुरुची मैत्री करतात, ते सदैव सुखी असतात. ॥७॥

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    विषय

    मैत्री करावी ईश्वराशी व आचार्याशी

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) (परमात्मपर) - हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशाली परमेश्वरा, (राधसः) ध्यान- यज्ञाचा साधक मी (ब्राह्मणात्) वेद आणि ईश्वराचा ज्ञाता मी - माझ्यापासून तू (ऋतून् अनु) ऋतूप्रमाणे वेळेनुसार (सोमम्) मी देत असलेल्या मैत्री रसाचे (रिब) पान कर. माझ्याशी (तव) तुझी (इदम्) ही (सख्यम्) मैत्री (अस्तृतम्) अविनाशी वा चिरस्थायी राहो.।। द्वितीय अर्थ - (गुरू- शिष्यपर) - हे (इन्द्र) विद्युतप्रमाणे तीव्र बुद्धी असलेल्या विद्यार्थी, तू (राधसः) अध्ययन- अध्यापन रूप यज्ञाचा जो साधक, त्या (ब्राह्मणात्) ब्रह्मवेत्ता, वेद वेत्ता आणि ब्राह्मण स्वभाव असलेल्या आचार्यापासून मिळणारा (ऋतून् अनु) ऋतूप्रमाणे (सोमम्) ज्ञान-रस (ऋतून् अनु) प्रत्येक ऋतूप्रमाणे (पिब) (आचार्याकडून ज्ञान ग्रहण कर). (तव) तुझी गुरूशी असलेली (इदम्) ही (सख्यम्) मैत्री हा गुरू- शिष्य सम्बन्धरूप मैत्री (अस्तृतम्) चिरकाळ टिकणारी व्हावी.।।७।।

    भावार्थ

    जे लोक परमात्मा आणि गुरूची मैत्री संपादिक करतात, ते सदा सुखी असतात.।।७।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे.।।७।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    இந்திரனே! பிராமணனின் ஐசுவரியத்தினின்று ருதுக்களை அனுசரித்தபின்னர், சோமனைப் பருகவும். உன் நட்பு எவராலும் காணமுடியாதது.

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