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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 241
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - मरुतः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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न꣡ हि व꣢꣯श्चर꣣मं꣢ च꣣ न꣡ वसि꣢꣯ष्ठः प꣣रिम꣡ꣳस꣢ते । अ꣣स्मा꣡क꣢म꣣द्य꣢ म꣣रु꣡तः꣢ सु꣣ते꣢꣫ सचा꣣ वि꣡श्वे꣢ पिबन्तु का꣣मि꣡नः꣢ ॥२४१॥
स्वर सहित पद पाठन꣢ । हि । वः꣣ । चरम꣢म् । च꣣ । न꣢ । व꣡सि꣢꣯ष्ठः । प꣣रिमँ꣡स꣢ते । प꣣रि । मँ꣡स꣢꣯ते । अ꣣स्मा꣡क꣢म् । अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । म꣣रु꣡तः꣢ । सु꣣ते꣢ । स꣡चा꣢꣯ । वि꣡श्वे꣢꣯ । पि꣣बन्तु । कामि꣡नः꣢ ॥२४१॥
स्वर रहित मन्त्र
न हि वश्चरमं च न वसिष्ठः परिमꣳसते । अस्माकमद्य मरुतः सुते सचा विश्वे पिबन्तु कामिनः ॥२४१॥
स्वर रहित पद पाठ
न । हि । वः । चरमम् । च । न । वसिष्ठः । परिमँसते । परि । मँसते । अस्माकम् । अद्य । अ । द्य । मरुतः । सुते । सचा । विश्वे । पिबन्तु । कामिनः ॥२४१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 241
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 1;
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पदार्थ -
(वसिष्ठः) परमात्मा में अत्यन्त वसनेवाला उपासक आत्मा (वः) तुम्हारे में से (चरमं च न) चरित—ज्ञान हुए गुण नाम को भी (न हि परिमंसते) नहीं त्याग कर मानता है “परिपूर्वक मनधातोर्लडर्थे लेट्” (अद्य) आज—अब (सुते) निष्पन्न उपासनारस को (सचा) मिलकर (विश्वे) सब (अस्माकं कामिनः) हम उपासकों के कल्याण की कामना करने वाले (मरुतः) इन्द्र—ऐश्वर्यवान्—परमात्मा के, वासनामारक गुण नाम देव “इन्द्रो वै मरुतः” [गो॰ २.१.२३] “इन्द्रस्य वै मरुतः” [कौ॰ ५.४] (पिबन्तु) पान करें—स्वीकार करें।
भावार्थ - परमात्मा में अत्यन्त बसा हुआ उपासक इन्द्र—परमात्मा के वासनामारक गुण नामों में से किसी ज्ञान गुण का भी परित्याग नहीं करता है अतः आज अवसर पर कल्याण चाहने वाले निष्पन्न उपासनारस को वे सब वासनामारक गुणनाम देव पान करें—स्वीकार करें॥९॥
टिप्पणी -
[*20. “इन्द्रस्य वै मरुतः” [कौ॰ ५.४]।]
विशेष - ऋषिः—वसिष्ठः (परमात्मा में अत्यन्त वसने वाला उपासक)॥ देवताः—मरुतः ‘इन्द्रसम्बद्धा मरुतः’ (इन्द्र के मरुत—पाप को मारने वाले गुण*20)॥<br>
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