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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 286
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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यः꣡ स꣢त्रा꣣हा꣡ विच꣢꣯र्षणि꣣रि꣢न्द्रं꣣ त꣡ꣳ हूम꣢हे व꣣य꣢म् । स꣡ह꣢स्रमन्यो तुविनृम्ण सत्पते꣣ भ꣡वा꣢ स꣣म꣡त्सु꣢ नो वृ꣣धे꣢ ॥२८६॥
स्वर सहित पद पाठयः꣢ । स꣣त्राहा꣢ । स꣣त्रा । हा꣢ । वि꣡च꣢꣯र्षणिः । वि । च꣣र्षणिः । इन्द्र꣣म् । तम् । हू꣣महे । वय꣢म् । स꣡ह꣢꣯स्रमन्यो । स꣡ह꣢꣯स्र । म꣣न्यो । तुविनृम्ण । तुवि । नृम्ण । सत्पते । सत् । पते । भ꣡व꣢꣯ । स꣣म꣡त्सु꣢ । स꣣ । म꣡त्सु꣢꣯ । नः꣣ । वृधे꣢ ॥२८६॥
स्वर रहित मन्त्र
यः सत्राहा विचर्षणिरिन्द्रं तꣳ हूमहे वयम् । सहस्रमन्यो तुविनृम्ण सत्पते भवा समत्सु नो वृधे ॥२८६॥
स्वर रहित पद पाठ
यः । सत्राहा । सत्रा । हा । विचर्षणिः । वि । चर्षणिः । इन्द्रम् । तम् । हूमहे । वयम् । सहस्रमन्यो । सहस्र । मन्यो । तुविनृम्ण । तुवि । नृम्ण । सत्पते । सत् । पते । भव । समत्सु । स । मत्सु । नः । वृधे ॥२८६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 286
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 6;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 6;
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पदार्थ -
(यः-सत्राहा) जो सत्र—यज्ञ—अध्यात्म में आने वाला “सत्रं यज्ञमध्यात्मयज्ञमाहन्ति—आगच्छति” “हन हिंसागत्योः” [अदादि॰] ‘गत्यर्थेऽत्र हन धातुः’ (विचर्षणिः) द्रष्टा अन्तर्यामी होने से उपासक के अभिप्राय को जानने वाला है “विचर्षणिः पश्यतिकर्मसु नामशब्दः” [निघं॰ ३.११] (तम् ‘त्वाम्’-इन्द्रम्) उस तुझ ऐश्वर्यवान् परमात्मा को (वयम्) हम (हूमहे) अध्यात्मयज्ञ में आमन्त्रित करते हैं (सहस्रमन्यो) हे बहुत मननीय! या बहुत तेजोमय—अत्यन्त दीप्तिवाले! “मन्युर्मन्यतेर्दीप्तिकर्मणः” [नि॰ १०.२९] (तुविनृम्ण) बहुत मोक्षैश्वर्यरूप धन वाले “तुवि बहुनाम” [निघं॰ ३.१] “अमेन्यस्मे नृम्णानि धारयेत्यक्रुध्यन्नो धनानि धारयेत्येवैतदाह” [श॰ १४.२.२.३०] (सत्पते) सत्पुरुषों उपासकों के पालक परमात्मन्! तू (समत्सु नः-वृधे भव) विरोधी वृत्तियों के साथ हुए संघर्षों में हमारी वृद्धि के लिये हो।
भावार्थ - जो अध्यात्मयज्ञ में आने वाला द्रष्टा अन्तर्यामीरूप से उपासक के सद्भाव को जानने वाला है उस तुझ ऐश्वर्यवान् परमात्मा को हम अपने अध्यात्मयज्ञ में आमन्त्रित करते हैं, हे बहुत मनन करने योग्य या बहुत दीप्तिमन् प्रकाशस्वरूप बहुत धन मोक्षैश्वर्य वाले तथा सत्पुरुषों उपासकों के पालक परमात्मन्! तू विरोधी वृत्ति प्रवृत्तियों के संघर्षों में हमारी वृद्धि के लिये हो—सदा रह॥४॥
विशेष - ऋषिः—शंयुः (सुखस्वरूप परमात्मा का इच्छुक)॥<br>
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