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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 288
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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य꣣दा꣢ क꣣दा꣡ च꣢ मी꣣ढु꣡षे꣢ स्तो꣣ता꣡ ज꣢रेत꣣ म꣡र्त्यः꣢ । आ꣡दिद्व꣢꣯न्देत꣣ व꣡रु꣢णं वि꣣पा꣢ गि꣣रा꣢ ध꣣र्त्ता꣢रं꣣ वि꣡व्र꣢तानाम् ॥२८८
स्वर सहित पद पाठय꣣दा꣢ । क꣣दा꣢ । च꣣ । मीढु꣡षे꣢ । स्तो꣣ता । ज꣣रेत । म꣡र्त्यः꣢꣯ । आत् । इत् । व꣣न्देत । व꣡रु꣢꣯णम् । वि꣣पा꣢ । गि꣣रा꣢ । ध꣣र्त्ता꣡र꣢म् । वि꣡व्र꣢꣯तानाम् । वि । व्र꣣तानाम् ॥२८८॥
स्वर रहित मन्त्र
यदा कदा च मीढुषे स्तोता जरेत मर्त्यः । आदिद्वन्देत वरुणं विपा गिरा धर्त्तारं विव्रतानाम् ॥२८८
स्वर रहित पद पाठ
यदा । कदा । च । मीढुषे । स्तोता । जरेत । मर्त्यः । आत् । इत् । वन्देत । वरुणम् । विपा । गिरा । धर्त्तारम् । विव्रतानाम् । वि । व्रतानाम् ॥२८८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 288
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 6;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 6;
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पदार्थ -
(मर्त्यः) मरणधर्मी जन्ममरण में पड़ा संसारी मनुष्य (स्तोता) परमात्मा का स्तुतिकर्ता हुआ—स्तुतिकर्ता बनकर (यदा कदा) जब कभी भी सुख में हो या दुःख में हो सम्पत्ति में या विपत्ति में (मीढुषे जरेत) सुखशान्तिवर्षक परमात्मा की स्तुति करें “जरते अर्चतिकर्मा” [निघं॰ ३.१४] (आत्-इत्) अनन्तर ही साथ ही (विव्रतानां धर्तारम्) विविधकर्मों—सृष्टि उत्पत्ति आदि तथा जीवों के कर्मफल विधान मोक्षानन्द प्रदान कर्मों के धर्ता—सम्पादन कर्ता—(वरुणम्) वरने योग्य वरने वाले या दुःखाज्ञान निवारक परमात्मा को (गिरा विपा) गरण भजन गुणगान करने वाली वाणी “विपा वाङ्नाम” [निघं॰ १.११] से (वन्देत) वन्दन करें—अभिनन्दन करें।
भावार्थ - सांसारिक बन्धन में पड़ा जन्ममरण में आने वाला मनुष्य जब कभी सुख में हो या दुःख में हो या सम्पत्ति में हो या विपत्ति में हो सांसारिक सुख तथा मोक्षानन्द की वृष्टि करने वाले परमात्मा की स्तुति किया करें सुखसम्पत्ति में गर्वरहित रहने का शान्तिबल मिलेगा और दुःख दारिद्र्य में सन्तोष का सहारा मिलेगा साथ ही स्तुति के उस नाना प्रकार सृष्टि रचनादि तथा जीवों के कर्मफल मोक्षानन्द प्रदान आदिकर्मा के विधाता का स्पष्ट कथन करने वाला वाणी से वन्दन गुणगान भजन भी उसका करना चाहिए, एकान्त में स्तुति स्तवन और सभा सम्मेलन में भी गुणगान भजन करना चाहिए॥६॥
विशेष - ऋषिः—वामदेवः (वननीय—उपासनीय इष्टदेव परमात्मा जिसका है ऐसा अनन्य उपासक)॥ देवताः—वरुणरूप (वरने योग्य वरने वाला ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥<br>
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