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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 291
ऋषिः - मेधातिथि0मेध्यातिथी काण्वौ देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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म꣣हे꣢ च꣣ न꣢ त्वा꣢द्रिवः꣣ प꣡रा꣢ शु꣣ल्का꣡य꣢ दीयसे । न꣢ स꣣ह꣡स्रा꣢य꣣ ना꣡युता꣢꣯य वज्रिवो꣣ न꣢ श꣣ता꣡य꣢ शतामघ ॥२९१॥

स्वर सहित पद पाठ

म꣣हे꣢ । च꣣ । न꣢ । त्वा꣣ । अद्रिवः । अ । द्रिवः । प꣡रा꣢꣯ । शु꣣ल्का꣡य꣢ । दी꣣यसे । न꣢ । स꣣ह꣡स्रा꣢य । न । अ꣣यु꣡ता꣢य । अ꣣ । यु꣡ता꣢꣯य । व꣣ज्रिवः । न꣢ । श꣣ता꣡य꣢ । श꣣तामघ । शत । मघ ॥२९१॥


स्वर रहित मन्त्र

महे च न त्वाद्रिवः परा शुल्काय दीयसे । न सहस्राय नायुताय वज्रिवो न शताय शतामघ ॥२९१॥


स्वर रहित पद पाठ

महे । च । न । त्वा । अद्रिवः । अ । द्रिवः । परा । शुल्काय । दीयसे । न । सहस्राय । न । अयुताय । अ । युताय । वज्रिवः । न । शताय । शतामघ । शत । मघ ॥२९१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 291
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 6;
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पदार्थ -
(अद्रिवः-वज्रिवः शतामघ) हे आनन्द यनवन् ओजस्वी बहुत प्रकार के धनवाले! कोषवाले परमात्मन्! “वज्रो वा ओजः” [श॰ ८.४.१.२०] (त्वा) “त्वम्” “सुपां सुलुक्पूर्वसवर्णाच्छे.....” [अष्टा॰ ७.१.३९] तू (शताय शुल्काय) सौ लक्ष्मी के लिये “श्रीर्वै शुल्कः” [जै॰ ३.२५८] (न परा दीयसे) नहीं त्यागा जाता है (सहस्राय न) सहस्र लक्ष्मी के लिये नहीं त्यागा जाता है (अयुतान न) लाख लक्ष्मी के लिये नहीं त्यागा जाता है (महे च न) लाख से महान् अधिक लक्ष्मी पाने के लिये भी नहीं त्यागा जाता है।

भावार्थ - हे आनन्दघनवन्-आनन्द बरसाने वाले ओज-आत्मबल वाले महैश्वर्यवन् निधिपति परमात्मन्! हम तुझे सौ लक्ष्मी स्वर्ण धन पाने के लिये, सहस्रलक्ष्मी स्वर्ण धन पाने के लिये, लक्ष लक्ष्मी सुवर्ण धन पाने के लिये, भारी लक्ष्मी सुवर्ण धन पाने के लिये त्याग नहीं कर सकते हैं। तेरे से प्राप्त होने वाले आनन्द, ओज और ऐश्वर्य के सम्मुख सांसारिक भारी से भारी लक्ष्मी धन तुच्छ है॥९॥

विशेष - ऋषिः—मेधातिथिर्मेध्यातिथिश्च (मेधा से निरन्तर-अतन प्रवेश करने वाला और मेध्य पवित्र परमात्मा में निरन्तर प्रवेशशील उपासक)॥<br>

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