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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 292
ऋषिः - मेधातिथि0मेध्यातिथी काण्वौ देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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व꣡स्या꣢ꣳ इन्द्रासि मे पि꣣तु꣢रु꣣त꣢꣫ भ्रातु꣣र꣡भु꣢ञ्जतः । मा꣣ता꣡ च꣢ मे छदयथः स꣣मा꣡ व꣢सो वसुत्व꣣ना꣢य꣣ रा꣡ध꣢से ॥२९२

स्वर सहित पद पाठ

व꣡स्या꣢न् । इ꣢न्द्र । असि । मे । पितुः꣢ । उ꣢त꣢ । भ्रा꣡तुः꣢ । अ꣡भु꣢ञ्जतः । अ । भु꣢ञ्जतः । माता꣢ । च꣢ । मे । छदयथः । समा꣢ । स꣢ । मा꣢ । व꣢सो । वसुत्वना꣡य꣢ । रा꣡ध꣢से ॥२९२॥


स्वर रहित मन्त्र

वस्याꣳ इन्द्रासि मे पितुरुत भ्रातुरभुञ्जतः । माता च मे छदयथः समा वसो वसुत्वनाय राधसे ॥२९२


स्वर रहित पद पाठ

वस्यान् । इन्द्र । असि । मे । पितुः । उत । भ्रातुः । अभुञ्जतः । अ । भुञ्जतः । माता । च । मे । छदयथः । समा । स । मा । वसो । वसुत्वनाय । राधसे ॥२९२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 292
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 6;
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पदार्थ -
(इन्द्र) ऐश्वर्यवन् परमात्मन् (मे) मेरे (अभुञ्जतः) न पालन करने वाले (पितुः) पिता से (उत) और (भ्रातुः) भ्राता से (वस्यान्-असि) अधिक बसाने वाला पालने वाला तू है (वसो) हे बसाने वाले परमात्मन्! (माता च समा ये छदयथः) माता और तू इष्ट देव परमात्मा समान भाव से मेरा संवरण करते हो—रक्षण करते हो—पालते हो (वसुत्वनाय राधसे) अत्यन्त बसाने वाले “वसु शब्दात् त्वनप्रत्ययोऽतिशयार्थश्छान्दसः” धन प्राप्ति के लिये हमें अपनी शरण में लेता है।

भावार्थ - संसार में पिता और भ्राता सम्भव है पालन न कर सकें, परन्तु परमात्मन्! तू अत्यन्त बसाने वाला है—पालन करने वाला है, माता और परमात्मन्! तुम दोनों समान पालन करने वाले हो माता भी कभी पालन करना नहीं त्यागती, ऐसे परमात्मन्! तू भी पालन करना नहीं त्यागता। माता सांसारिक धन से या स्वशरीर गत दूध से पालन करती है परन्तु बसाने वाले परमात्मन्! तू तो अत्यन्त बसाने वाले आध्यात्मिक धन प्राप्ति के लिये हमें अपनी शरण देता है॥१०॥

विशेष - ऋषिः—मेधातिथिर्मेध्यातिथिश्च (मेधा से निरन्तर-अतन प्रवेश करने वाला और मेध्य पवित्र परमात्मा में निरन्तर प्रवेशशील उपासक)॥<br>

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