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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 30
ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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प꣢रि꣣ वा꣡ज꣢पतिः क꣣वि꣢र꣣ग्नि꣢र्ह꣣व्या꣡न्य꣢क्रमीत् । द꣢ध꣣द्र꣡त्ना꣢नि दा꣣शु꣡षे꣢ ॥३०॥

स्वर सहित पद पाठ

प꣡रि꣢꣯ । वा꣡ज꣢꣯पतिः । वा꣡ज꣢꣯ । प꣣तिः । कविः꣢ । अ꣣ग्निः꣢ । ह꣣व्या꣡नि꣢ । अ꣣क्रमीत् । द꣡ध꣢꣯त् । र꣡त्ना꣢꣯नि । दा꣣शु꣡षे꣢ ॥३०॥


स्वर रहित मन्त्र

परि वाजपतिः कविरग्निर्हव्यान्यक्रमीत् । दधद्रत्नानि दाशुषे ॥३०॥


स्वर रहित पद पाठ

परि । वाजपतिः । वाज । पतिः । कविः । अग्निः । हव्यानि । अक्रमीत् । दधत् । रत्नानि । दाशुषे ॥३०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 30
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3;
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पदार्थ -
(वाजपतिः कविः-अग्निः) अमृत अन्न भोग—मोक्षानन्द का स्वामी “अमृतोऽन्नं वै वाजः” [जै॰ २.१९३] क्रान्तदर्शी सर्वज्ञ प्रकाशस्वरूप परमात्मा (दाशुषे रत्नानि दधत्) स्तुति हाव भाव पूर्ण आत्मसमर्पण करने वाले उपासक के लिये रत्नों—रमणीय अङ्गों उपकरणों को धारण कराने के हेतु (हव्यानि पर्यक्रमीत्) हावभाव पूर्ण स्तुतियों को परिप्राप्त करता है—स्वीकार करता है।

भावार्थ - उपासक की हावभाव पूर्ण स्तुतियों को अमृतान्न भोग का स्वामी सर्वत्र अन्तर्यामी परमात्मा स्वीकार करता है और आत्मसमर्पणकर्ता उपासक के लिये रमणीय अङ्गों तथा स्वास्थ्य, मधुर वाणी, सुबुद्धि, धैर्य, शान्ति, अमृत भोग वररूप में शतगुणित सहस्रगुणितफल प्रदान करता है “देहि मे ददामि ते” [यजुः॰ ३.५०] “तू दे तो मैं तुझे देता हूँ” को चतिार्थ करता है॥१०॥

विशेष - ऋषिः—वामदेवः (वननीय उपास्य परमात्मदेव वाला)॥<br>

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