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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 30
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
    72

    प꣢रि꣣ वा꣡ज꣢पतिः क꣣वि꣢र꣣ग्नि꣢र्ह꣣व्या꣡न्य꣢क्रमीत् । द꣢ध꣣द्र꣡त्ना꣢नि दा꣣शु꣡षे꣢ ॥३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प꣡रि꣢꣯ । वा꣡ज꣢꣯पतिः । वा꣡ज꣢꣯ । प꣣तिः । कविः꣢ । अ꣣ग्निः꣢ । ह꣣व्या꣡नि꣢ । अ꣣क्रमीत् । द꣡ध꣢꣯त् । र꣡त्ना꣢꣯नि । दा꣣शु꣡षे꣢ ॥३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परि वाजपतिः कविरग्निर्हव्यान्यक्रमीत् । दधद्रत्नानि दाशुषे ॥३०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    परि । वाजपतिः । वाज । पतिः । कविः । अग्निः । हव्यानि । अक्रमीत् । दधत् । रत्नानि । दाशुषे ॥३०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 30
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3;
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    परमेश्वर स्तोता का क्या उपकार करता है, यह कहते हैं।

    पदार्थ

    प्रथम—परमेश्वर के पक्ष में। (वाजपतिः) आत्मिक बलों का अधीश्वर, (कविः) मेधावी, दूरदर्शी (अग्निः) प्रकाशस्वरूप परमेश्वर (दाशुषे) अपने आत्मा को हवि बनाकर ईश्वरार्पण करनेवाले आत्मदानी स्तोता के लिए (रत्नानि) रमणीय सद्गुणरूप धन (दधत्) प्रदान करता हुआ, उसकी (हव्यानि) आत्मसमर्पणरूप हवियों को (परि अक्रमीत्) सब ओर से प्राप्त करता है अर्थात् स्वीकार करता है ॥ द्वितीय—यज्ञाग्नि के पक्ष में। (वाजपतिः) अन्नों और बलों का प्रदाता तथा पालक, (कविः) गतिमान् (अग्निः) यज्ञाग्नि (दाशुषे) हवि देनेवाले यजमान के लिए (रत्नानि) आरोग्य आदि रूप रमणीय फलों को (दधत्) देता हुआ (हव्यानि) सुगन्धित, मधुर, पुष्टिकर तथा रोगनाशक घृत, केसर, कस्तूरी आदि हवियों को (परि अक्रमीत्) सूक्ष्म करके चारों ओर फैला देता है ॥१०॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है और उपमानोपमेयभाव ध्वनित होता है ॥१०॥

    भावार्थ

    जैसे अन्नों और बलों की उत्पत्ति का निमित्त यज्ञाग्नि हवि देनेवाले यजमान को दीर्घायुष्य, आरोग्य आदि फल प्रदान करता है, वैसे ही उपासनायज्ञ में आत्मसमर्पणरूप हवि देनेवाले स्तोता को परमेश्वर सद्गुण आदि रूप फल देता है ॥१०॥

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    पदार्थ

    (वाजपतिः कविः-अग्निः) अमृत अन्न भोग—मोक्षानन्द का स्वामी “अमृतोऽन्नं वै वाजः” [जै॰ २.१९३] क्रान्तदर्शी सर्वज्ञ प्रकाशस्वरूप परमात्मा (दाशुषे रत्नानि दधत्) स्तुति हाव भाव पूर्ण आत्मसमर्पण करने वाले उपासक के लिये रत्नों—रमणीय अङ्गों उपकरणों को धारण कराने के हेतु (हव्यानि पर्यक्रमीत्) हावभाव पूर्ण स्तुतियों को परिप्राप्त करता है—स्वीकार करता है।

    भावार्थ

    उपासक की हावभाव पूर्ण स्तुतियों को अमृतान्न भोग का स्वामी सर्वत्र अन्तर्यामी परमात्मा स्वीकार करता है और आत्मसमर्पणकर्ता उपासक के लिये रमणीय अङ्गों तथा स्वास्थ्य, मधुर वाणी, सुबुद्धि, धैर्य, शान्ति, अमृत भोग वररूप में शतगुणित सहस्रगुणितफल प्रदान करता है “देहि मे ददामि ते” [यजुः॰ ३.५०] “तू दे तो मैं तुझे देता हूँ” को चतिार्थ करता है॥१०॥

    विशेष

    ऋषिः—वामदेवः (वननीय उपास्य परमात्मदेव वाला)॥<br>

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    विषय

    समर्पण

    पदार्थ

    (वाजपतिः)=सब अन्नों का पति और (कवि:)= क्रान्तदर्शी (अग्निः)= अग्रगति व उन्नति को सिद्ध करनेवाला वह प्रभु (हव्यानि)= दानपूर्वक अदन योग्य इन पदार्थों को [हु दान + अदन] (परि अक्रमीत्)= चारों ओर व्याप्त कर रहा है। वह प्रभु अनगिनत अन्नों का स्वामी है। उसने सब प्राणियों के निवास स्थानों में, उस- उस स्थान के जल-वायु के अनुकूल खाद्य पदार्थ प्राप्त कराये हैं। (दाशुषे) = आत्मसमर्पण करनेवाले के लिए वे प्रभु (रत्नानि )= उत्तम पदार्थों को (दधत्)= धारण करते हैं।

    उत्तमोत्तम पदार्थ हमारे चारों ओर विद्यमान हैं। 'उनमें कौन-सा हमारे लिए इस समय उपादेय है कौन-सा नहीं' यह बात अल्पज्ञतावश हम ठीक-ठीक नहीं समझते। वह प्रभु क्रान्तदर्शी=तत्त्वज्ञ होने से ठीक-ठीक समझता है। हमें चाहिए कि हम प्रभु के प्रति आत्मसमर्पण करते हुए परिश्रम के परिणाम के रूप में पदार्थों को प्राप्त कराने का भार उस प्रभु पर ही डाल दें। वे ठीक पदार्थों को - रत्नों को सर्वोत्तम वस्तुओं को प्राप्त कराके हमारी अग्रगति का साधन करेंगे। इसलिए तो वे प्रभु अग्नि कहलाते हैं।

    जीव को चाहिए कि प्रभु के प्रति समर्पण कर दे और यही आराधना करे कि जिस स्थिति में आप ठीक समझते हैं, उसमें रखिए, तभी हम अपने जीवन को उत्तम गुणों से सम्पन्न बनाकर इस मन्त्र के ऋषि 'वामदेव' होंगे।

    भावार्थ

    हम प्रभु के प्रति अपना समर्पण करें, वे हमें रत्न प्राप्त कराएँगे ।

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    पदार्थ

    शब्दार्थ = ( वाजपतिः ) = अन्नपति, ( कवि: ) = सर्वज्ञ  ( अग्नि: ) = प्रकाशस्वरूप परमात्मा  ( दाशुषे ) = दानी के लिए  ( हव्यानि ) = ग्रहण करने योग्य  ( रत्नानि ) = विद्या, मोती, हीरे स्वर्णादि धनों को  ( दधत् ) = देता हुआ  ( परि अक्रमीत् ) = सर्वत्र व्याप रहा है। 

    भावार्थ

    भावार्थ = हे सर्वसुखदातः ! आप दानशील हैं, इसलिए दानशील उदार भक्त पुरुष ही आपको प्यारे हैं। विद्यादाता को विद्या, अन्नदाता को अन्न, धनदाता को धन, आप देते हैं । इसलिए विद्वानों को योग्य है, कि आपकी प्रसन्नता के लिए, विद्यार्थियों को विद्या का दान बड़े प्रेम से करें, धनी पुरुषों को भी योग्य है कि योग्य सुपात्रों के प्रति धन, वस्त्रादिकों का दान उत्साह, श्रद्धा, भक्ति और प्रेम से करें। आपके स्वभाव के अनुसार चलनेवाले सत्पुरुषों को आप सब सुख देते हैं। इसलिए हम सबको आपके स्वभाव और आज्ञा के अनुकूल चलना चाहिये तब ही हम सुखी होंगे अन्यथा कदापि नहीं ।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = ( वाजपतिः१  ) = बल, वीर्य, अन्न, ज्ञान का स्वामी ( कवि:२ ) = क्रान्तदर्शी, मेधावी ( अग्निः ) = अग्नि , परमेश्वर ( दाशुषे ) = दान करनेवाले को ( रत्नानि ) = रमणीय पदार्थ, ( दधत् ) = देता हुआ, ( हव्यानि ) = हवन करने योग्य पदार्थों और भक्तिपूर्वक स्तुति वचनों को ( परि अक्रमीत् ) = स्वीकार करता है । 

    टिप्पणी

    १ . वाज इत्यन्ननाम, ( नि० २ । ७ ।)
    २.कविरिति मेधाविनाम,( नि० ३ ॥ १५ । ) 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - वामदेवः। 
    छन्द: - गायत्री। 
     

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वरः स्तोतुः किमुपकरोतीत्याह।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमेश्वरपरः। (वाजपतिः) वाजानाम् आत्मिकबलानां पतिः अधीश्वरः, (कविः) मेधावी, कान्तद्रष्टा। कविरिति मेधाविनाम। निघं० ३।१५। कविः क्रान्तदर्शनो भवति कवतेर्वा इति निरुक्तम् १२।१३। (अग्निः) प्रकाशस्वरूपः परमेश्वरः (दाशुषे) आत्मानं हविः कृत्वा दत्तवते स्तोत्रे। ‘दाश्वान् साह्वान् मीढ्वाँश्च।’ अ० ६।—१।१२ अनेनायं दानार्थाद् दाशतेः क्वसुप्रत्ययान्तो निपातितः। (रत्नानि) रमणीयानि सद्गुणरूपाणि धनानि। रत्नानां रमणीयानां धनानामिति निरुक्तम्। ७।५। (दधत्) धारयन्, प्रयच्छन्, तस्य (हव्यानि) आत्मसमर्पणरूपाणि हवींषि (परि अक्रमीत्) परितः प्राप्नोति, स्वीकरोतीत्यर्थः। क्रमु पादविक्षेपे। छन्दसि लुङ्लङ्लिटः अ० ३।४।६ इति लडर्थे लङ् ॥ अथ द्वितीयः—यज्ञाग्निपरः। (वाजपतिः) अन्नानां बलानां च प्रदाता पालकश्च, (कविः) गतिमान्। पवनाहतः सन् कवते यज्ञवेद्यां ज्वालाभिरितस्ततः संचरतीति कविः। कवते गतिकर्मा। निघं० २।१४। (अग्निः) यज्ञाग्निः (दाशुषे) हविर्दत्तवते यजमानाय (रत्नानि) आरोग्यादिरूपाणि रमणीयानि फलानि (दधत्) प्रयच्छन् सन् (हव्यानि) सुगन्धिमिष्टपुष्टिवर्धकरोगनाशकानि घृतकेसरकस्तूर्यादीनि हवींषि (परि अक्रमीत्२) सूक्ष्मीकृत्य परितो विस्तारयति ॥१०॥३ अत्र श्लेषालङ्कारः, उपमानोपमेयभावश्च गम्यते ॥१०॥

    भावार्थः

    यथाऽन्नानां बलानां चोत्पत्तिनिमित्तं यज्ञाग्निर्हविर्दत्तवते यजमानाय दीर्घायुष्यारोग्यादीनि फलानि प्रयच्छति तथैवोपासनायज्ञे आत्मसमर्पणरूपाणि हवींषि दत्तवते स्तोत्रे परमेश्वरः सद्गुणादिरूपाणि फलानि ददाति ॥१०॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ४।१५।३, य० ११।२५ ऋषिः सोमकः। २. क्रमिर्गत्यर्थः, शुद्धोऽपि च ण्यर्थे द्रष्टव्यः। परिक्रमितवान् परिगमितवान् नीतवानित्यर्थः—इति वि०। ३. दयानन्दर्षिर्मन्त्रेऽस्मिन् ऋग्भाष्ये दातृपुरुषसाम्येन यजुर्भाष्ये च गृहस्थसाम्येन भौतिकाग्निविषयमाह।

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    God, the Lord of strength and Wisdom, giving precious things to the charity-minded person, accepts our laudations.

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    Meaning

    Agni, lord of food, energy and the dynamics of life and society, commanding a full poetic vision of corporate life, comprehends the gifts and oblations of the holy fire of the nation, bearing the jewels of lifes wealth for the generous giver. (Rg. 4-15-3)

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    Translation

    The Omniscient Leader who is the Lord of Strength, accepts the devotional offerings of His devotees, giving them precious things in the form of wisdom and character.

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    Translation

    The adorable Lord, the fire of enlightenment, accepts the devotional offerings from the wise and adept people, and blesses the offerers with precious spiritual gifts. (Cf. Rv IV.15.3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वाजपतिः कविः अग्निः) અમૃતઅન્નભોગ = મોક્ષાનંદનો સ્વામી. કવિ = ક્રાન્તદર્શી અગ્નિ = સર્વજ્ઞ જ્ઞાન-પ્રકાશસ્વરૂપ પરમાત્મા (दाशुषे रत्नानि दधत्) સ્તુતિ હાવભાવ પૂર્ણ આત્મ સમર્પણ કરનાર ઉપાસકને માટે રત્નો - રમણીય અંગો રૂપ ઉપકરણોને ધારણ કરાવવા માટે (हव्यानि पर्य क्रमीत्) હાવભાવ પૂર્ણ સ્તુતિઓને સર્વત્રથી પ્રાપ્ત કરે છે - સ્વીકાર કરે છે. (૧૦)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : ઉપાસકની હાવભાવ પૂર્ણ સ્તુતિઓને અમૃતાન્ન ભોગનો સ્વામી સર્વત્ર અન્તર્યામી પરમાત્મા સ્વીકાર કરે છે અને આત્મ સમર્પણ કરનાર ઉપાસકને માટે રમણીય અંગો તથા સ્વાસ્થ્ય, મધુરવાણી, સુબુદ્ધિ, ધૈર્ય, શાન્તિ અને અમૃતભોગને સો ગણા કે હજાર ગણા ફળથી વરરૂપમાં પ્રદાન કરે છે ‘‘देहि मे ददामि ते’’ તું આપ તો હું તને આપું છું ને ચરિતાર્થ કરે છે. (૧૦) 

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    دینے والوں کو دیتا ہے

    Lafzi Maana

    (واج پتی) اَنّ، بل اور گیان کے سوامی (کوی) وید کاویہ کا بنانے والا (اگنی) پرکاش روپ ایشور (ہویانی) اُپاسک، سچے بھگت یا عابدوں کے دوارہ سمرپت پدارتھوں یا نشکام وان کو (پری اکرمیت) آگے دکر سویکار کرتا ہے۔ استقبال مے آید (داشوُ شے) آتم دان یعنی اپنے آپ کو جو بھگوان کے سُپرد کر دیتے ہیں اُن کے لئے (رتنانی دھت) اُتم اُتم (رتن) پدارتھوں دھن، زر و مال، راجیہ اور اپنی خصوصی نعمتوں، برکتوں کو جو سب سے افضل ترین دولت ہے، دے دیتا ہے۔

    Tashree

    تشریح: ماں مجھے وہ چیز لا دو جو تمہیں اچھی لگے، ایسا بیٹا اچھا ہے۔ جیسا آپ میرے لئے مناسب سمجھیں وہی دؤا دیں جس سے مجھ شفا حاصل ہو جائے، ڈاکٹر صاحب ادہ ہی مریض اچھا ہے، جو شکھشا آپ میرے لئے اُتم سمجھیں وہی مجھے گورو دیو! ایسا طالب علم ہی اچھا ہے۔ سچا عابد یا بھگت بھی وہ ہے جو بھگوان کو کہے۔ پربھُو میرے پیارے!
    راضی ہیں ہم اُسی میں جس میں تیری رضا ہے،
    یاں یُوں بھی واہ واہ ہے اوروُوں بھی واہ واہ ہے۔

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    পরি বাজপতিঃ কবিরগ্নির্হব্যান্যক্রমীৎ ।

    দধদ্ রত্নানি দাশুষে।।১০।।

    (সাম ৩০)

    পদার্থঃ (বাজপতিঃ) অন্নপতি, (কবিঃ) সর্বজ্ঞ, (অগ্নিঃ) প্রকাশস্বরূপ পরমাত্মা! তুমি (দাশুষে) দানশীল ব্যক্তির জন্য (হব্যানি) গ্রহণ করার যোগ্য (রত্নানি) বিদ্যা, হীরা, মুক্তা, স্বর্ণাদি ধনকে (দধৎ) প্রদান করে (পরি অক্রমীৎ) সর্বত্র ব্যাপ্ত হয়ে আছ। 

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে সর্বসুখদাতা! তুমি দানশীল, এজন্য দানশীল উদার ভক্তই তোমার প্রিয়। বিদ্যা দাতাকে বিদ্যা, অন্নদাতাকে অন্ন, ধনদাতাকে ধন তুমিই দিয়ে থাকো। এজন্য বিদ্বানদের উচিত যে, তারা যেন তোমার প্রসন্নতার জন্য স্নেহের সাথে বিদ্যার্থীদের বিদ্যা দান করে। ধনী ব্যক্তিদের উচিত যে, তারা যেন ভক্তি, শ্রদ্ধা ও ভালোবাসা সহকারে ধন, অন্ন, বস্ত্র ইত্যাদি দান প্রেমের সহিত করে। তোমার স্বভাবের অনুসারে চলা সৎ ব্যক্তিকে তুমি সকল সুখ দিয়ে থাকো। এজন্য আমাদের সবারই তোমার আজ্ঞার অনুকূল চলা উচিত, তখনই আমরা সুখী হতে পারবো, অন্যথা কখনও নয়।। ১০।।

     

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसा अन्न व बल यांचा निमित्त असलेला यज्ञाग्नी हवि देणाऱ्या यजमानाला दीर्घायुष्य, आरोग्य इत्यादी फळ प्रदान करतो, तसेच उपासना यज्ञात आत्मसमर्पणरूपी हवि देणाऱ्या स्तोत्याला परमेश्वर सद्गुण इत्यादी रूपी फळ देतो. ॥१०॥

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    विषय

    आता परमेश्वर स्तोत्यावर कसा उपकार करतो, हे सांगतात. -

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) (परमेश्वरपरक) (राजपति:) आर्वत्मक बळाचा अधीश्वर (कवि:) मेधावी व दूरदर्शी (अग्नि:) प्रकाशस्वरूप परमेश्वर (दाशुषे) आत्म्याला हवी करून ईश्वराला अर्पण करणाऱ्या आत्मदानी स्त्रोतासाठी (रत्नानि) रमणीय सद्गुणरूप संपत्ती (दधत्) प्रदान करीत त्याच्या आत्मसमर्पणरूप हवीला (परि अक्रमीत्) सर्वत: पूर्णत: प्राप्त करतो अर्थात स्वीकार करतो. ।।१०।। द्वितीय अर्थ : (यज्ञाग्नीपरक) (वाजपति) अन्न आणि शक्ती देणारा आणि सर्वांचा पालक (कवि:) गतिमान (अग्नि:) यज्ञाग्नी (दाशुषे) हवी देणाऱ्या यजमानाला (रक्षन्ति) आरोग्य आदी रमणीय फळे (दधत्) देत (हव्यानि) सुगंधित, मधुर, पुष्टिकर आणि रोगनाशक धृत, केशर, कस्तुरी आदी आहुती पदार्थांना (परि, अक्रमीत) सूक्ष्म करून चारही दिशांकडे प्रसृत करतो. ।।१०।।

    भावार्थ

    ज्याप्रमाणे अन्न आणि बळ यांच्या उत्पत्तीचे कारण असलेला यज्ञाग्नी हवी देणाऱ्या यजमानाला दीर्घायुष्य, आरोग्य आदी फळ प्रदान करतो, त्याचप्रमाणे आत्मसमर्पणरूप हवी देणाऱ्या स्तोताला परमेश्वर सद्गुण आदी फळे देतो. ।।१०।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेषालंकार आणि उपमानोपमेयभाव ध्वनित होत आहे. ।।१०।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    [1](யக்ஞஞ் செய்பவர்களுக்கு) இரமணீயமான (ஐசுவரியங்களை அளித்து), பலத்தின் தலைவனாய் கவியான (அக்னியானவன்), புனிதப்பொருள்களைச் சுற்றிச் செல்லுகிறான்.

    FootNotes

    [1].யக்ஞஞ் செய்பவர்களுக்கு - நல்ல செயல் செய்பவர்களுக்கு, யுத்தஞ் செய்பவர்களுக்கு.

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