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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 31
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
    51

    उ꣢दु꣣ त्यं꣢ जा꣣त꣡वे꣢दसं दे꣣वं꣡ व꣢हन्ति के꣣त꣡वः꣢ । दृ꣣शे꣡ विश्वा꣢꣯य꣣ सू꣡र्य꣢म् ॥३१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ꣢त् । उ꣣ । त्य꣢म् । जा꣣त꣡वे꣢दसम् । जा꣣त꣢ । वे꣣दसम् । देव꣢म् । व꣣हन्ति । केत꣡वः꣢ । दृ꣣शे꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯य । सू꣡र्य꣢꣯म् ॥३१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः । दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥३१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । उ । त्यम् । जातवेदसम् । जात । वेदसम् । देवम् । वहन्ति । केतवः । दृशे । विश्वाय । सूर्यम् ॥३१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 31
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 11
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में सूर्य के दृष्टान्त से परमेश्वर विषय का उपदेश है।

    पदार्थ

    प्रथम—सूर्य के पक्ष में। (केतवः) किरणें (त्यम्) उस प्रसिद्ध, (जातवेदसम्) उत्पन्न पदार्थों को प्रकाशित करनेवाले, (देवम्) प्रकाशमान, प्रकाशक, दिन-रात आदि के प्रदाता तथा द्युलोक में स्थित (सूर्यम्) सूर्य-रूप अग्नि को (विश्वाय दृशे) सब प्राणियों के दर्शन के लिए (उद् वहन्ति) पृथिवी आदि लोकों में पहुँचाती हैं, अर्थात् सूर्य ऊपर स्थित हुआ भी किरणों द्वारा सब लोकों में पहुँच जाता है ॥ द्वितीय—परमेश्वर के पक्ष में। (केतवः) जिन्हें ऋतम्भरा प्रज्ञा प्राप्त हो गई है, वे योगी लोग (त्यम्) स्वयं अनुभव किये गये उस प्रसिद्ध, (जातवेदसम्) सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, धनों के उत्पादक और ज्ञानप्रदायक, (देवम्) दिव्यगुणप्रदाता (सूर्यम्) सूर्य के सदृश ज्योतिर्मय परमेश्वर-रूप अग्नि को (विश्वाय दृशे) सबके साक्षात्कार के लिए (उद् वहन्ति) सर्वत्र प्रचारित करते हैं ॥११॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। सूर्य और परमेश्वर का उपमानोपमेयभाव व्यंग्य है ॥११॥

    भावार्थ

    जैसे सूर्य के प्रकाश को उसकी किरणें भूमि आदि लोकों में पहुँचाती हैं, जिससे सब लोग देख सकें, वैसे ही योगी विद्वान् जन परमेश्वर का स्वयं साक्षात्कार करके अन्यों के दर्शनार्थ उसे सर्वत्र प्रचारित करते हैं ॥११॥

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    पदार्थ

    (त्यं जातवेदसं सूर्यं देवम्) उस जात-उत्पन्नमात्र में विद्यमान तथा जातमात्र-उत्पन्नमात्र जिसमें विद्यमान हैं ऐसे सर्वाधार तथा प्रकाश प्रेरक परमात्मदेव को (विश्वाय दृशे) विश्व के दृष्ट कराने—बोध कराने के लिये (केतवः) ज्ञान कराने वाले प्रज्ञान रूप “केतुः प्रज्ञाननाम” [निघं॰ ३.९] सरित्, सागर, गिरि, पर्वत, चन्द्र, तारे (उ-उद्वहन्ति) उद्घोषित करते हैं।

    भावार्थ

    समस्त ग्रह तारे पृथिवी आदि पिण्ड उत्पादक सर्वव्यापक सर्वाधार प्रकाशक परमात्मा को उद्घोषित कर रहे हैं, समस्त मानवों को बोध कराने सुझाने के लिये हैं, इनके द्वारा परमात्मा का मनन होता है॥११॥

    विशेष

    ऋषिः—प्रस्कण्वः (प्रकृष्ट मेधावी)॥ देवता—सूर्याग्निः (सर्वप्रकाशक सर्वप्रेरक परमात्मा)॥<br>

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    विषय

    दर्शन

    पदार्थ

    पिछले मन्त्र में समर्पण का विषय चल रहा था। समर्पण उसी के प्रति होता है जिसे हम देख पाते हैं। अनदिखे के प्रति अर्पण क्या! जीव को भी प्रभु दिखेंगे तभी तो उनके प्रति अर्पण करेगा, अतः समर्पण के बाद दर्शन का विषय आता है।

    (उत् उ)= ऊपर उठकर ही । जब तक जीव प्राकृतिक भोगों में उलझा हुआ है तब तक तो प्रभु-दर्शन कर ही नहीं सकता। जिस दिन हम प्रकृति की उलझनों से (उत्) = out=बाहर निकल जाएँगे उसी दिन (त्यम्)= उस दूर से दूर - सर्वत्र विद्यमान (जातवेदसम्)= प्रत्येक पदार्थ में विद्यमान (देवम् )= ज्ञानाग्नि से दीप्त [ देवो दीपनात्] (सूर्यम्)= सबको प्रकाशित करनेवाले उस प्रभु को (केतव:)=ज्ञानी, विचारशील [कित ज्ञाने] होकर ही (वहन्ति)= धारण करेंगे।

    परमेश्वर की सत्ता हमारे हृदयों में है, परन्तु ज्ञान के अभाव में उसकी सत्ता हमारे लिए न होने के ही समान है। विचारशील बनने पर ज्ञानी प्रभु को अपने अन्दर धारण करते हैं, परन्तु प्रभु का दर्शन कर ये उस अद्भुत रस में ही निमग्न नहीं हो जाते, अपितु विश्वाय दृशे =[सर्वेषां दर्शनाय] जगद्रूपी जङ्गल में भटकते हुए अन्य जीवों को भी वे उस प्रभु का दर्शन कराने का प्रयत्न करते हैं। इस प्रकार ब्रह्मानन्द की प्राप्ति करके भी वे स्वार्थी नहीं बन जाते। इनका जीवन ही यह प्रमाणित करता है कि ये स्वार्थ की गन्ध से दूर हैं, परिणामतः मूर्खता से भी दूर हैं। ये वस्तुतः मेधावी हैं, इस मन्त्र के ऋषि ‘प्रस्कण्व' बनने के योग्य हैं।

    भावार्थ

    ज्ञानी चिन्तन करके, प्रकृति की उलझनों से ऊपर उठ, प्रभु का दर्शन करते हैं और अन्य मनुष्यों को भी उसका दर्शन कराने का प्रयत्न करते हैं।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = ( केतवः१  ) = ज्ञान करने, करानेवाले रश्मियों के समान प्रज्ञाएं या विद्वान्गण ( सूर्यम् ) = सूर्य के समान प्रकाशमान, समस्त संसार के उत्पादक उस सविता, ( जातवेदसे ) = सब पदार्थों के जाननेहारे या वेदों के मूलकारण ( त्यं उ ) = उस ( देवं ) = परमात्मा देव को ही ( उद् वहन्ति ) = धारण करते हैं कि ( विश्वाय ) = समस्त संसार उसको ( दृशे ) = देख ले, जान ले । 

    सब विद्वान् उसे ज्ञान का मूलकारण और सब प्राणियों का प्रेरक सबसे ऊपर बतलाते हैं कि सब उसको जानलें और उसके दिये ज्ञान से स्वयं भी सब कार्य व्यवहारों को जानें ।

    टिप्पणी

    १. केतुरिति प्रज्ञानाम | नि०३ | ९  ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि: - कण्व :। 
    छन्दः - गायत्री। 
     

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सूर्यदृष्टान्तेनेश्वरविषय उपदिश्यते।

    पदार्थः

    प्रथमः—सूर्यपरः। (केतवः) किरणाः (त्यम्) तं प्रसिद्धम् (जातवेदसम्) यो जातान् पदार्थान् वेदयते प्रकाशयति तादृशम्, (देवम्) प्रकाशमानं, प्रकाशकम्, अहोरात्रादीनां दातारम्, द्युस्थानभवं च। देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनाद्वा द्युस्थानो भवतीति वा। निरु० ७।१५। (सूर्यम्) आदित्यरूपम् अग्निम् (विश्वाय दृशे) सर्वेषां भूतानां दर्शनाय। विश्वाय इत्यत्र षष्ठ्यर्थे चतुर्थीति वाच्यम्’ अ० २।३।६२ वा० इति षष्ठ्यर्थे चतुर्थी। विश्वस्मै इति प्राप्ते छन्दसि विभाषा सर्वनामसंज्ञानिषेधात् स्मै आदेशो न। दृशे इति दृशे विख्ये च अ० ३।४।११ इत्यनेन तुमर्थे के प्रत्ययान्तो निपातः। (उद् वहन्ति) पृथिव्यादिलोकेषु प्रसारयन्ति। उपरि स्थितोऽप्यादित्यः किरणद्वारा सर्वान् लोकान् प्राप्नोतीति भावः ॥ इमं मन्त्रं यास्कमुनिरेवं व्याचष्टे—उद्वहन्ति तं जातवेदसं रश्मयः केतवः सर्वेषां भूतानां दर्शनाय सूर्यमिति कमन्यमादित्यादेवमवक्ष्यत् इति। निरु० १०।१५ ॥ अथ द्वितीयः—परमेश्वरपरः। (केतवः) केतुमन्तः प्राप्तऋतम्भराप्रज्ञा योगिनो विद्वांसः२ । केतुरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। निघं० ३।९। अत्र मतुपो लुक्। (त्यम्) तं स्वानुभूतं प्रसिद्धम् (जातवेदसम्) सर्वज्ञं, सर्वव्यापकं, सर्वैर्ज्ञेयं, धनोत्पादकं, ज्ञानप्रदायकं च। जातवेदाः कस्मात्? जातानि वेद, जातानि वैनं विदुः जाते जाते विद्यत इति वा, जातवित्तो वा जातधनः, जातविद्यो वा जातप्रज्ञानः इति निरुक्तम्। ७।१९। (देवम्) दिव्यगुणप्रदायकम् (सूर्यम्३) सूर्यवद् भासमानं परमेश्वरम् (विश्वाय दृशे) विश्वेषां जनानां साक्षात्करणाय उद् वहन्ति सर्वत्र प्रचारयन्ति ॥११॥४ अत्र श्लेषालङ्कारः। द्वयोरर्थयोरुपमानोपमेयभावश्च व्यज्यते ॥११॥

    भावार्थः

    यथा सूर्यं तद्रश्मयः सर्वेषां जनानामालोकाय भूम्यादिलोकान् प्रापयन्ति, तथा योगिनो विद्वांसः परमेश्वरं स्वयं साक्षात्कृत्य परेषां दर्शनाय सर्वत्रोपदिशन्ति ॥११॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १।५०।१, य० ७।४१ अन्ते स्वाहा इत्यधिकम्, ३३।३१, अथ० २०।४७।१३ सर्वत्र देवता सूर्यः। अथ० १३।२।१६ ऋषिः ब्रह्मा, देवता रोहित आदित्यः। २. केतवः किरणा इव प्रकाशमाना विद्वांसः इति य० ८।४१ भाष्ये द०। ३. सूर्यम् यः स्रियते विज्ञाप्यते वा वेदैर्विद्वद्भिश्च तम् इति य० ७।४१ भाष्ये द०। ४. दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमम् ऋग्भाष्ये हे मनुष्याः, यूयं यथा केतवो रश्मयो विश्वाय दृशे उदुत्यं जातवेदसं देवं सूर्यम् उद्वहन्ति तथा गृहाश्रमसुखदर्शनाय सुशोभनाः स्त्रिय उद्वहत इति विषये, य० ७।४१ इत्यत्र सूर्यदृष्टान्तेन परमेश्वरविषये, य० ३३।३१ इत्यत्र च सूर्यविषये व्याचष्टे।

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    For the good of humanity, the learned as seers, verily dilate upon God, the Creator of the Vedas, the Embodiment of purity and effulgence.

    Translator Comment

    This verse occurs in Yajurveda 7-41, 8—41, 33-37 and Rigveda 1-5O-1, with different interpretation.

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    Meaning

    The rays of the sun (like banners of a mighty monarch) carry the brilliance of light, revealing the omnipresence of the omniscient Lord Supreme of the universe. (Rg. 1-50-1)

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    Translation

    he suns, the stars, the oceans, hills

    Are all the flags that point to Him

    The Giver of Light, who kills all ills

    and helps us to swim

    Across the ocean of grief

    Surrounding us from all sides.
    God is Almighty, All-pervading

    Omniscient Lord who guides

    Wisemen meditating on Him
    And gives them life and light
    Day and night, they think of Him

    And guide the world aright,

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    Translation

    The banners of glory speak high of the effulgent God, who knows all that lives, that all may look on him. (Cf. Rv I.50.1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (त्यं जातवेदसं सूर्यं देवम्) તે જાત = ઉત્પન્ન માત્રમાં વિદ્યમાન તથા જાતમાત્ર = ઉત્પન્ન માત્ર જેમાં વિદ્યમાન છે; એવા સર્વાધાર અને પ્રકાશના પ્રેરક પરમાત્મ દેવને (विश्वाय दृशे) વિશ્વને દૃષ્ટ કરાવવા-બોધ કરાવવા માટે (केतवः) જ્ઞાન કરાવનાર પ્રજ્ઞાન રૂપ નદી, સાગર, ગિરિ, પર્વત, ચંદ્ર, તારાઓ (उ - उद्वहन्ति) ઉદ્ઘોષિત કરે છે. (૧૧)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : સમસ્ત ગ્રહ, તારા, પૃથિવી આદિ પિંડો તેના ઉત્પાદક સર્વવ્યાપક, સર્વાધાર, પ્રકાશક પરમાત્માને ઉદ્ઘોષિત કરે છે. તે સમસ્ત માનવોને બોધ કરાવવા, સમજાવવા માટે છે, તેના દ્વારા પરમાત્માનું મનન-ચિંતન થાય છે. (૧૧)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    کیسے جانیں کہ یہ دُنیا پرمیشور کی ہے؟

    Lafzi Maana

    (تیّم) اُس (جات وید سم) پیداہ وئے سب پدارتھوں میں موجود اور سب پدارتھ اُس  میں موجود ہیں۔ جس سے چاروں وید پرگٹ ہوئے (سُوریم) جڑ چیتن سنسار کی آتما سُوریوں کے سُوریہ (دویم) دیووں کے دیو پرم دیو کو (وےشوائے دِرشے) سب ودیاؤں کی پراپتی کے لئے، کے دِکھانے کے لئے (کیتوہ) گیان کرنے والی جھنڈیوں کی طرح ندی، ساگر، پہاڑ، چندر تارے، بدلتی ہوئی موسمیں دن اور رات وغیرہ (اُدوہنتی) اونچا گھوش (باآوازِ بلند) کر رہے ہیں۔

    Tashree

    تشریح: جس پرمیشور کو وید گیان اور جگت کے سبھی عجیب و غریب ادبھُت پدارتھوں اور شریروں کی بناوٹ وغیرہ کا بے مثال نظام جتلا رہا ہے۔ کہ ان سب کا بنانے والا کوئی عظیم عالم، کاریگر یا وشو کرماں ہے۔ ٹھیک ویسے جیسے جھنڈیاں کسی مقام کا پتہ دے رہی ہوں۔ اُسی آتما کی پرم آتما پیارے پرمیشور کی اُپاسنا (عبادت) ہم سدا کیا کریں۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसा सूर्य आपली प्रकाश किरणे भूमी वगैरे लोकांमध्ये पसरवितो, त्यामुळे सर्व लोक सर्व काही पाहू शकतील. तसेच योगी विद्वान लोक परमेश्वराचा साक्षात्कार करून इतरांच्या दर्शनासाठी सर्वत्र त्याला प्रचारित करतात. ॥११॥

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    विषय

    आता पुढील मंत्रात सूर्याच्या उदाहरणावरून परमेश्वराविषयी उपदेश केला आहे. -

    शब्दार्थ

    प्रथम अर्थसू (सूर्यपरक) (केतन:) त्याची किरणे (त्यम्) चा प्रख्यात (जातवेदसम) उत्पन्न पदार्थांना प्रकाशित करणाऱ्या (देवम्) प्रकाशमान, प्रकाशक, दिवस रात्र आदींचा निर्माता आणि द्युलोकात स्थित (सूर्यम्) सूर्यरूप अग्नीला (विश्वाय दृशे) सर्व लोकांना पाहता यावे यासाठी (उद्वहन्ति) त्याची किरणे त्या सूर्याला पृथ्वी आदी लोकांपर्यंत नेतात अर्थात सूर्य वर आकाशात स्थित असूनही त्याच्या किरणांद्वारे सर्व लोकांपर्यंत पोहोचतो. द्वितीय अर्थ : (परमेश्वरपरक) - (केतव:) ज्यांना ऋतम्भरा प्रज्ञा प्राप्त झाली आहे, असे योगीजन (त्यम्) स्वत: अनुभूत त्या प्रसिद्ध (जातवेदसम) सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, धनोत्पादक आणि ज्ञानप्रदायक (देवम्) दिव्यगुण प्रदाता (सूर्यम्) सूर्यवत ज्योतिर्मय परमेश्वररूप अग्नीचा, (विश्वाय दृशे) सर्वांना त्या ईश्वराचा साक्षात्कार करता यावा, याकरीता (उद्वहन्ति) सर्वत्र प्रचारीत करतात. ।।११।।

    भावार्थ

    सूर्याची किरणे त्याचा प्रकाश भूमी आदी लोकांपर्यंत नेतात की ज्यायोगे सर्व प्राणी, पदार्थ पाहू शकतात, त्याचप्रमाणे योगी विद्वज्जन स्वत: परमेश्वराचा साक्षात्कार करून इतरांना अनुभवणे शक्य व्हावे यासाठी त्या साक्षात्काराचा/परमेश्वराचा सर्वांसाठी प्रचार करतात. ।।११।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. सूर्याचा आणि परमेश्वराचा उपमान उपमेयभाव आहे. ।।११।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    [1]ரசிமிகள் அனைவருங் காண, முதன்மையாய் ஞான ஐசுவரிய மளிப்பவனான திவ்யமான [2](சூரியனை), உயரமாய் சுமந்து செல்லுகின்றன.

    FootNotes

    [1]. ரசிமிகள் - ஞானங்கள்
    [2].சூரியனை - சர்வேசனை

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