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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 300
ऋषिः - श्रुष्टिगुः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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क꣣दा꣢ च꣣न꣢ स्त꣣री꣡र꣢सि꣣ ने꣡न्द्र꣢ सश्चसि दा꣣शु꣡षे꣢ । उ꣢पो꣣पे꣡न्नु म꣢꣯घ꣣वन्भू꣢य꣣ इ꣢꣯न्नु ते꣣ दा꣡नं꣢ दे꣣व꣡स्य꣢ पृच्यते ॥३००॥

स्वर सहित पद पाठ

क꣣दा꣢ । च꣣ । न꣢ । स्त꣣रीः꣢ । अ꣣सि । न꣢ । इ꣣न्द्र । सश्चसि । दाशु꣡षे꣢ । उ꣡पो꣢꣯प । उ꣡प꣢꣯ । उ꣣प । इ꣢त् । नु । म꣣घवन् । भू꣡यः꣢꣯ । इत् । नु । ते꣣ । दा꣡न꣢꣯म् । दे꣣व꣡स्य꣢ । पृ꣣च्यते ॥३००॥


स्वर रहित मन्त्र

कदा चन स्तरीरसि नेन्द्र सश्चसि दाशुषे । उपोपेन्नु मघवन्भूय इन्नु ते दानं देवस्य पृच्यते ॥३००॥


स्वर रहित पद पाठ

कदा । च । न । स्तरीः । असि । न । इन्द्र । सश्चसि । दाशुषे । उपोप । उप । उप । इत् । नु । मघवन् । भूयः । इत् । नु । ते । दानम् । देवस्य । पृच्यते ॥३००॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 300
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 7;
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पदार्थ -
(इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (कदाचन) कभी भी (स्तरीः-न-असि) वधक नहीं होता है “स्तृणाति वधकर्मा” [निघं॰ २.१९] ‘तत ईप्रत्ययश्छान्दसः कर्तरि’ (दाशुषे सश्चसि) आत्मदान या उपासनारस प्रदान करने वाले के लिये गति करता है अपने को पहुँचाता है “सश्चसि गतिकर्मा” [निघं॰ २.१४] “देहि मे ददामि ते” [यजु॰ ३.५०] (मघवन्) हे प्रशस्त धन वाले परमात्मन्! (ते देवस्य दानम्) तुझ देव का दान आत्मस्वरूप का प्रदान—ब्रह्मानन्द दान (इत्-उ) अवश्य ही (भूयः) अधिकाधिक (नु) निश्चय (उप-उप पृच्यते) समीप उपपृक्त—उपसंयुक्त होता है।

भावार्थ - हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! तू कभी भी उपासक का वधक नहीं होता है अपितु हितसाधक होता है, आत्मदान आत्मसमर्पण करने वाले या उपासनारस देने वाले के लिये तू भी अपने आपको पहुँचाता है यह तुझ देव का विचित्र दान है जो उपासक के आत्मदान या उपासनारस दान से भी निश्चय अधिक दान है वरदान है जो कि उपासक के अन्दर समीप से समीप उपसंयुक्त हो जाता है॥८॥

विशेष - ऋषिः—बालखिल्याः (बल खिल—दो बलों परमात्मबल और जीवात्मबलों के अन्तर—स्वरूपों के जानने में कुशल जन)॥<br>

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