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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 321
ऋषिः - बुहस्पतिर्नकुलो वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
3
ब्र꣡ह्म꣢ जज्ञा꣣नं꣡ प्र꣢थ꣣मं꣢ पु꣣र꣢स्ता꣣द्वि꣡ सी꣢म꣣तः꣢ सु꣣रु꣡चो꣢ वे꣣न꣡ आ꣢वः । स꣢ बु꣣꣬ध्न्या꣢꣯ उप꣣मा꣡ अ꣢स्य वि꣣ष्ठाः꣢ स꣣त꣢श्च꣣ यो꣢नि꣣म꣡स꣢तश्च꣣ वि꣡वः꣢ ॥३२१॥
स्वर सहित पद पाठब्र꣡ह्म꣢꣯ । ज꣣ज्ञान꣢म् । प्र꣢थम꣢म् । पु꣣र꣡स्ता꣢त् । वि । सी꣣मतः꣢ । सु꣣रु꣡चः꣢ । सु꣣ । रु꣡चः꣢꣯ । वे꣣नः꣢ । अ꣣वरि꣡ति꣢ । सः । बु꣣ध्न्याः꣡ । उ꣣पमाः । उ꣣प । माः꣢ । अ꣣स्य । विष्ठाः꣢ । वि꣣ । स्थाः꣢ । स꣣तः꣢ । च꣣ । यो꣡नि꣢꣯म् । अ꣡स꣢꣯तः । अ । स꣣तः । च । वि꣢ । व꣣रि꣡ति꣢ ॥३२१॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो वेन आवः । स बुध्न्या उपमा अस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च विवः ॥३२१॥
स्वर रहित पद पाठ
ब्रह्म । जज्ञानम् । प्रथमम् । पुरस्तात् । वि । सीमतः । सुरुचः । सु । रुचः । वेनः । अवरिति । सः । बुध्न्याः । उपमाः । उप । माः । अस्य । विष्ठाः । वि । स्थाः । सतः । च । योनिम् । असतः । अ । सतः । च । वि । वरिति ॥३२१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 321
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 9;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 9;
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पदार्थ -
(पुरस्तात्) सृष्टि से पूर्व (प्रथमं ब्रह्म जज्ञानम्) प्रथित अण्डरूप ब्रह्माण्ड परमात्मा के द्वारा प्रसिद्ध हुआ तो उसमें (वेनः) कान्तिमान् इन्द्र—परमात्मा के “इन्द्र उ वै वेनः” [कौ॰ ८.५] (सीमतः) सीमा से उनकी अपनी सीमा से—परिधिक्रम से (सुरुचः) पृथिवी चन्द्रादि लोकों को “इमे लोकाः सुरुचः” [श॰ ७.४.१.१४] (वि-आव) पृथक्-पृथक् व्यक्त किया—रचा (सः) उस परमात्मा ने (अस्य) इस ब्रह्माण्ड की (बुध्न्याः-उपमाः-विष्ठाः) अन्तरिक्ष आकाश में होने वाली दिशाओं को “दिशो वा उपमाः” [श॰ ७.४.१.१४] विशेष स्थापित किया “व्यष्ठाः-अड् लोपश्छान्दसः” “बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि” [अष्टा॰ ६.४.७५] तथा (सतः-च-असतः-च योनिं विवः) प्राणी की और अप्राणी की योनि—प्राणी योनि और अप्राणी योनि—जड़ योनि को “प्राणो वै सत्” [जै॰ १.१०२] व्यक्त किया।
भावार्थ - ऐश्वर्यवान् परमात्मा के द्वारा सृष्टि से पूर्व प्रथित ब्रह्माण्ड—विश्वगोल—व्यक्त हुआ। उसमें परमात्मा ने सीमाओं में परिधियों में पृथिवी आदि लोकों पिण्डों को व्यक्त किया—रचा, पुनः इस ब्रह्माण्ड की आकाशगत दिशाओं को व्यवस्थित किया। मनुष्य, गौ, घोड़ा आदि प्राणी योनि और आम्र वृक्ष आदि अप्राणी योनि को व्यक्त किया—रचा है। उस ऐसे रचयिता शक्तिशाली परमात्मा को जान उसकी उपासना करनी चाहिए जिसने पृथिवी आदि पिण्डों को सीमा में बान्धा और पृथिवी आदि पिण्डों पर हम जीवात्माओं को योनियों में बान्धा है। बन्धन से छूटने के लिये परमात्मा की उपासना करना साधन है॥९॥
विशेष - ऋषिः—बृहस्पतिर्नकुलो वा (बृहती वाक्-वाणी विद्या का पति ब्रह्मवक्ता या नकुल—परिवार प्रसार से रहित एकाकी आदित्य ब्रह्मचारी)॥<br>
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