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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 358
ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - दधिक्रा छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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द꣣धिक्रा꣡व्णो꣢ अकारिषं जि꣣ष्णो꣡रश्व꣢꣯स्य वा꣣जि꣡नः꣢ । सु꣣रभि꣢ नो꣣ मु꣡खा꣢ कर꣣त्प्र꣢ न꣣ आ꣡यू꣢ꣳषि तारिषत् ॥३५८॥

स्वर सहित पद पाठ

द꣣धिक्रा꣡व्णः꣢ । द꣣धि । क्रा꣡व्णः꣢꣯ । अ꣣कारिषम् । जिष्णोः꣢ । अ꣡श्व꣢꣯स्य । वा꣣जि꣡नः꣢ । सु꣣रभि꣢ । सु꣣ । रभि꣢ । नः꣣ । मु꣡खा꣢꣯ । मु । खा꣣ । करत् । प्र꣢ । नः꣢ । आ꣡यूँ꣢꣯षि । ता꣣रिषत् ॥३५८॥


स्वर रहित मन्त्र

दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः । सुरभि नो मुखा करत्प्र न आयूꣳषि तारिषत् ॥३५८॥


स्वर रहित पद पाठ

दधिक्राव्णः । दधि । क्राव्णः । अकारिषम् । जिष्णोः । अश्वस्य । वाजिनः । सुरभि । सु । रभि । नः । मुखा । मु । खा । करत् । प्र । नः । आयूँषि । तारिषत् ॥३५८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 358
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 1;
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पदार्थ -
(जिष्णोः) जयशील—(अश्वस्य) व्यापक—(वाजिनः) अमृत अन्न वाले (दधिक्राव्णः) जगत् को धारण किए हुए परमात्मा के “देवपवित्रं वै दधिक्राः” [ऐ॰ ६.३६] (अकारिषम्) स्तुति करूँ (नः) हमारे (मुखा) मुख में होने वाले या मुखस्वरूप नासिका जिह्वा आदि ज्ञानेन्द्रियों को (सुरभि) सुगन्ध वाले (करत्) करो (नः-आयूंषि) हमारी आयुओं को (प्रतारिषत्) बढ़ावें।

भावार्थ - पवित्रदेव परमात्मा जो जयशील अमृतयोग का निमित्त व्यापक है वह हमारी इन्द्रियों को सुवासित करने वाला और आयुओं को बढ़ाता है उसकी स्तुति किया करें॥७॥

विशेष - ऋषिः—वामदेवः (वननीय देव जिसका है ऐसा उपासक)॥ देवता—दधिक्रावा ‘इन्द्रसम्बद्धो दधिक्रावा’ (परमात्मा से सम्बन्ध रखने वाला ध्यान में आने वाला गुण देव)॥<br>

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