Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 367
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - उषाः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
3
व꣡य꣢श्चित्ते प꣣तत्रि꣡णो꣢ द्वि꣣पा꣡च्चतु꣢꣯ष्पादर्जुनि । उ꣢षः꣣ प्रा꣡र꣢न्नृ꣣तू꣡ꣳरनु꣢꣯ दि꣣वो꣡ अन्ते꣢꣯भ्य꣣स्प꣡रि꣢ ॥३६७॥
स्वर सहित पद पाठव꣡यः꣢꣯ । चि꣣त् । ते । पतत्रि꣡णः꣢ । द्वि꣣पा꣢त् । द्वि꣣ । पा꣢त् । च꣡तु꣢꣯ष्पात् । च꣡तुः꣢꣯ । पा꣣त् । अर्जुनि । उ꣡षः꣢꣯ । प्र । आ꣣रन् । ऋतू꣢न् । अ꣡नु꣢꣯ । दि꣣वः꣢ । अ꣡न्ते꣢꣯भ्यः । परि꣢꣯ ॥३६७॥
स्वर रहित मन्त्र
वयश्चित्ते पतत्रिणो द्विपाच्चतुष्पादर्जुनि । उषः प्रारन्नृतूꣳरनु दिवो अन्तेभ्यस्परि ॥३६७॥
स्वर रहित पद पाठ
वयः । चित् । ते । पतत्रिणः । द्विपात् । द्वि । पात् । चतुष्पात् । चतुः । पात् । अर्जुनि । उषः । प्र । आरन् । ऋतून् । अनु । दिवः । अन्तेभ्यः । परि ॥३६७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 367
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2;
Acknowledgment
पदार्थ -
(अर्जुनि) अर्जुन—शुभ्रस्वरूप इन्द्र ऐश्वर्यवान् परमात्मा की “अर्जुनो ह वै नामेन्द्रः” [श॰ २.१.२.११] (उषः) दीप्त शक्ति (दिवः-अन्तेभ्यः-परि) आकाश के प्रदेशों से लेकर पृथिवी तक तेरे या तेरे द्वारा (वयः-चित्) अन्नमात्र—अद्यमान वनस्पतिवर्ग “वयः-अन्ननाम” [निघं॰ २.७] “वयः-अन्नम्” [निरु॰ ६.४] “अन्नं वै वयः” [श॰ ८.५.२.६] (पतत्रिणः) सब पक्षी (द्विपात्) मनुष्य “द्विपाद् वै पुरुषः” [ऐ॰ ४.३] (चतुष्पात्) गौ घोड़े आदि चार पैर वाले (ऋतून्-अनु) ऋतुओं के अनुसार अपने अपने समय के अनुसार (प्रारन्) प्राप्त होते हैं—प्रादुर्भूत होते हैं—प्रकट होते हैं।
भावार्थ - परमात्मा की शुभ्र या दीप्त शक्ति के द्वारा आकाश से पृथिवी तक समस्त गोधूम आदि ओषधि वनस्पतियाँ पक्षी मनुष्य गौ आदि पशु अपनी ऋतु या समय के अनुसार प्रारम्भ सृष्टि में प्रादुर्भूत हुआ करते हैं। अतः हम इस महती दीप्तशक्ति को अपने अन्दर वसा कर जीवन का विकास करें॥८॥
विशेष - ऋषिः—प्रस्कण्वः (अति मेधावी—लोक से ऊपर अध्यात्म में मेधा रखने वाला)॥ देवता—उषाः ‘इन्द्रसम्बद्धा’ (परमात्मज्योतिः)॥<br>
इस भाष्य को एडिट करें