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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 368
ऋषिः - त्रित आप्त्यः
देवता - विश्वेदेवाः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣣मी꣡ ये दे꣢꣯वा꣣ स्थ꣢न꣣ म꣢ध्य꣣ आ꣡ रो꣢च꣣ने꣢ दि꣣वः꣢ । क꣡द्ध꣢ ऋ꣣तं꣢꣫ कद꣣मृ꣢तं꣣ का꣢ प्र꣣त्ना꣢ व꣣ आ꣡हु꣢तिः ॥३६८॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣मी꣡इति꣢ । ये दे꣣वाः । स्थ꣡न꣢꣯ । स्थ । न꣣ । म꣡ध्ये꣢꣯ । आ । रो꣣चने꣢ । दि꣣वः꣢ । कत् । वः꣣ । ऋत꣢म् । कत् । अ꣣मृ꣡त꣢म् । अ꣣ । मृ꣡त꣢꣯म् । का꣢ । प्र꣣त्ना꣢ । वः꣢ । आ꣡हु꣢꣯तिः । आ । हु꣣तिः ॥३६८॥
स्वर रहित मन्त्र
अमी ये देवा स्थन मध्य आ रोचने दिवः । कद्ध ऋतं कदमृतं का प्रत्ना व आहुतिः ॥३६८॥
स्वर रहित पद पाठ
अमीइति । ये देवाः । स्थन । स्थ । न । मध्ये । आ । रोचने । दिवः । कत् । वः । ऋतम् । कत् । अमृतम् । अ । मृतम् । का । प्रत्ना । वः । आहुतिः । आ । हुतिः ॥३६८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 368
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2;
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पदार्थ -
(दिवः-आरोचने मध्ये) ज्ञानप्रकाशक इन्द्र—परमात्मा के समन्त प्रकाश स्थान के मध्य में (अमी ये वः-देवाः—स्थन) वे जो ‘वः यूयम्’ ‘विभक्तिव्यत्ययः’ तुम विद्वान्जन हो (कत्-ह-ऋतम्) क्या ऋत है सत्य है (कत्-अमृतम्) क्या अमृत है (का प्रत्ना-आहुतिः) क्या पुरातनी सदा से चली आई आहुति देने लेने योग्य भेंट है।
भावार्थ - परमात्मा के गुण प्रकाशनार्थ सम्मेलन होने चाहिए उनमें एकत्र विद्वानों में चर्चा चलनी चाहिए। क्या ऋत धर्म है जिससे संसार का नियन्त्रण परमात्मा कर रहा है जीवात्माओं को भोगफल एवं अभ्युदय देता है और क्या अमृत धर्म है, जिससे मुक्तों के लिए मोक्ष की प्रवृत्ति है—मोक्षानन्द दे रहा है। इन दोनों में अधिनायक परमात्मदेव को मान उसके आदेश का पालन और आराधना करना चाहिए॥९॥
विशेष - ऋषिः—त्रित आप्त्यः (तीर्णतम परमात्म प्राप्ति से—ऊँचा उठा)॥ देवता—विश्वे देवाः ‘इन्द्रसम्बद्धाः’ (परमात्मा के दिव्य धर्म)॥<br>
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