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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 369
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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ऋ꣢च꣣ꣳ सा꣡म꣢ यजामहे꣣ या꣢भ्यां꣣ क꣡र्मा꣢णि कृ꣣ण्व꣡ते꣢ । वि꣡ ते सद꣢꣯सि राजतो य꣣ज्ञं꣢ दे꣣वे꣡षु꣢ वक्षतः ॥३६९॥
स्वर सहित पद पाठऋ꣡च꣢꣯म् । सा꣡म꣢꣯ । य꣣जामहे । या꣡भ्या꣢꣯म् । क꣡र्मा꣢꣯णि । कृ꣣ण्व꣡ते꣢ । वि । ते꣡इति꣢ । स꣡द꣢꣯सि । रा꣣जतः । यज्ञ꣢म् । दे꣣वे꣡षु꣢ । व꣣क्षतः ॥३६९॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋचꣳ साम यजामहे याभ्यां कर्माणि कृण्वते । वि ते सदसि राजतो यज्ञं देवेषु वक्षतः ॥३६९॥
स्वर रहित पद पाठ
ऋचम् । साम । यजामहे । याभ्याम् । कर्माणि । कृण्वते । वि । तेइति । सदसि । राजतः । यज्ञम् । देवेषु । वक्षतः ॥३६९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 369
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2;
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पदार्थ -
(ऋचं साम यजामहे) परमात्मा की स्तुति और उपासना का हम सेवन करें (याभ्यां कर्माणि कृण्वते) जिनके द्वारा—जिनके सेवन के साथ श्रेष्ठकर्म करते हैं (ते) वे दोनों (सदसि) हमारे हृदयसदन में (विराजतः) विशेषरूप से बने रहें, स्थान जमावें (यज्ञं देवेषु वक्षतः) हमारे अध्यात्म यज्ञ को हमारी समस्त इन्द्रियों में प्रवाहित करें।
भावार्थ - समस्त श्रेष्ठ कर्मों को परमात्मा की स्तुति उपासना से आरम्भ करना चाहिए, हमारे हृदय में स्तुति उपासना घर कर जावें और हमारी इन्द्रियों में अध्यात्मता का सञ्चार कर दें जिससे इन्द्रियाँ असंयम का कार्य न कर सकें॥१०॥
विशेष - ऋषिः—वामदेवः (वननीय उपासनीय देव जिसका है)॥ देवता—ऋक्सामे ‘इन्द्रसम्बद्धे’ (ऐश्वर्यवान् परमात्मा के ऋक्साम—स्तुति उपासना)॥<br>
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