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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 385
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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ए꣢दु꣣ म꣡धो꣢र्म꣣दि꣡न्त꣢रꣳ सि꣣ञ्चा꣡ध्व꣣र्यो꣣ अ꣡न्ध꣢सः । ए꣣वा꣢꣫ हि वी꣣र꣡स्तव꣢꣯ते स꣣दा꣡वृ꣢धः ॥३८५॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । इत् । उ꣣ । म꣡धोः꣢꣯ । म꣣दि꣡न्त꣢रम् । सि꣣ञ्च꣢ । अध्व꣣र्यो । अ꣡न्ध꣢꣯सः । ए꣣व꣢ । हि । वी꣣रः꣢ । स्त꣡व꣢꣯ते । स꣣दा꣡वृ꣢धः । स꣣दा꣢ । वृ꣣धः ॥३८५॥
स्वर रहित मन्त्र
एदु मधोर्मदिन्तरꣳ सिञ्चाध्वर्यो अन्धसः । एवा हि वीरस्तवते सदावृधः ॥३८५॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । इत् । उ । मधोः । मदिन्तरम् । सिञ्च । अध्वर्यो । अन्धसः । एव । हि । वीरः । स्तवते । सदावृधः । सदा । वृधः ॥३८५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 385
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 4;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 4;
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पदार्थ -
(अध्वर्यो) हे अध्यात्म यज्ञ को प्राप्त एवं अपीडक उपासक! तू (मधोः-अन्धसः) मधुर आध्यानीय उपासनारस के द्वारा “तृतीयार्थे पञ्चमी छान्दसी” (मदिन्तरम्) अत्यन्त प्रसन्न होने वाले—इन्द्र परमात्मा को “तरत् स मन्दी धावति” [ऋ॰ ९.५.८.१] (इत्-उ-आसिञ्च) अवश्य ही समन्त पूर्ण रूप से सींच (एव हि) ऐसे ही (सदावृधः-वीरः) वह सदा बढ़ाने वाला प्रेरक परमात्मा (स्तवते) स्तुत किया जाता है।
भावार्थ - अध्यात्म यज्ञ के याजक उपासक परमात्मा को अपने मधुर श्रद्धा अनुराग भरे ध्यानोपासनारस से सींचा करें ऐसे ही उसे उन्नत करने वाले प्रगति देने वाले परमात्मा की स्तुति की जाया करती है॥५॥
विशेष - ऋषिः—विश्वमना वैयश्वः (विशेष-संस्कृत इन्द्रिय घोड़े रखने में सम्पन्न—समर्थ और सबके प्रति समान मनोभाव वाला उपासक)॥<br>
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