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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 391
ऋषिः - प्रगाथो घौरः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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गृ꣣णे꣡ तदि꣢꣯न्द्र ते꣣ श꣡व꣢ उप꣣मां꣢ दे꣣व꣡ता꣢तये । य꣡द्धꣳसि꣢꣯ वृ꣣त्र꣡मोज꣢꣯सा शचीपते ॥३९१॥

स्वर सहित पद पाठ

गृ꣣णे꣢ । तत् । इ꣣न्द्र । ते । श꣡वः꣢꣯ । उ꣣पमा꣢म् । उ꣣प । मा꣢म् । दे꣣व꣡ता꣢तये । यत् । हँ꣡सि꣢꣯ । वृ꣣त्र꣢म् । ओ꣡ज꣢꣯सा । श꣣चीपते । शची । पते ॥३९१॥


स्वर रहित मन्त्र

गृणे तदिन्द्र ते शव उपमां देवतातये । यद्धꣳसि वृत्रमोजसा शचीपते ॥३९१॥


स्वर रहित पद पाठ

गृणे । तत् । इन्द्र । ते । शवः । उपमाम् । उप । माम् । देवतातये । यत् । हँसि । वृत्रम् । ओजसा । शचीपते । शची । पते ॥३९१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 391
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 5;
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पदार्थ -
(शचीपते-इन्द्र) हे सर्वकर्मसमर्थ परमात्मन्! “शची कर्मनाम” [निघं॰ २.१] (तत्-शवः) तेरे उस प्रसिद्ध धन—अध्यात्म धन मोक्षैश्वर्य को “शवः-धन नाम” [निघं॰ २.१०] (गृणे) प्रशंसित करता हूँ (देवतातये) जो जीवन्मुक्त के लिये “सर्वदेवात् तातिल्” [अष्टा॰ ४.४.१४२] (ते-उपमाम्) तेरे समीप में “उपमे-अन्तिक नाम” [निघं॰ २.१६] रखता है तथा (यत्-वृत्रम्) जो पापबन्धन को (ओजसा) बल से (हंसि) तू नष्ट करता है।

भावार्थ - हे सर्वकर्मसमर्थ परमात्मन्! तू महान् न्यायकारी और दाता है कि तू यथायोग्य कर्मफल का प्रदान करता है। मैं तेरे उस मोक्षैश्वर्य अध्यात्मधन की प्रशंसा करता हूँ जिसे तू जीवन्मुक्त या मुक्तात्मा के लिए अपने पास रखता है तथा उसके पापबन्धन को भी नष्ट करता है॥१॥

विशेष - ऋषिः—प्रगाथः (प्रकृष्ट वाणी—स्तुति वाला उपासक)॥ छन्दः—उष्णिक्॥<br>

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