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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 392
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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य꣢स्य꣣ त्य꣡च्छम्ब꣢꣯रं꣣ म꣢दे꣣ दि꣡वो꣢दासाय र꣣न्ध꣡य꣢न् । अ꣣य꣡ꣳ स सोम꣢꣯ इन्द्र ते सु꣣तः꣡ पिब꣢꣯ ॥३९२॥
स्वर सहित पद पाठय꣡स्य꣢꣯ । त्यत् । शं꣡ब꣢꣯रम् । शम् । ब꣣रम् । म꣡दे꣢ । दि꣡वो꣢꣯दासाय । दि꣡वः꣢꣯ । दा꣣साय । रन्ध꣡य꣢न् । अ꣣य꣢म् । सः । सो꣡मः꣢ । इ꣣न्द्र । ते । सुतः꣢ । पि꣡ब꣢꣯ ॥३९२॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य त्यच्छम्बरं मदे दिवोदासाय रन्धयन् । अयꣳ स सोम इन्द्र ते सुतः पिब ॥३९२॥
स्वर रहित पद पाठ
यस्य । त्यत् । शंबरम् । शम् । बरम् । मदे । दिवोदासाय । दिवः । दासाय । रन्धयन् । अयम् । सः । सोमः । इन्द्र । ते । सुतः । पिब ॥३९२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 392
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 5;
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पदार्थ -
(इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (यस्य मदे) जिस सोम—उपासनारस के तृप्तियोग—प्रसन्नताप्रसङ्ग निमित्त “मद तृप्तियोगे” [चुरादि॰] (दिवः-दासाय) अमृतधाम मोक्ष के दर्शक उपासक के लिए “त्रिपादस्यामृतं दिवि” [ऋ॰ १०.९०.३] (त्यत्-शम्बरम्) उस ‘शम्-आवरक’ अर्थात् कल्याण के प्रतिबन्धक—पापबन्धन को (रन्धयन्) नष्ट करने के हेतु “लक्षणहेत्वोः क्रियायाः” [अष्टा॰ ३.२.१२६] (सः-अयं सोमः-ते सुतः पिब) वह यह जो उपासनारस निष्पन्न किया है इसे तू पान कर—स्वीकार कर—करता है।
भावार्थ - उपासनारस से तृप्त—प्रसन्न होकर परमात्मा मोक्षामृताकांक्षी—मोक्षधाम के दर्शक उपासक के लिए मोक्षानन्द के प्रतिरोधक पापबन्धन को नष्ट करने के लिए उपासक द्वारा निष्पन्न किए उपासनारस को स्वीकार किया करता है॥२॥
विशेष - ऋषिः—भरद्वाजः (परमात्मा के अमृतान्न को अपने अन्दर भरण करने वाला उपासक)॥<br>
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