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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 401
ऋषिः - सौभरि: काण्व: देवता - मरुतः छन्दः - ककुप् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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आ꣡ ग꣢न्ता꣣ मा꣡ रि꣢षण्यत꣣ प्र꣡स्था꣢वानो꣣ मा꣡प꣢ स्थात समन्यवः । दृ꣣ढा꣡ चि꣢द्यमयिष्णवः ॥४०१॥

स्वर सहित पद पाठ

आ꣢ । ग꣣न्ता । मा꣢ । रि꣣षण्यत । प्र꣡स्था꣢꣯वानः । प्र । स्था꣣वानः । मा꣢ । अ꣡प꣢꣯ । स्था꣣त । समन्यवः । स । मन्यवः । दृढा꣢ । चि꣣त् । यमयिष्णवः ॥४०१॥


स्वर रहित मन्त्र

आ गन्ता मा रिषण्यत प्रस्थावानो माप स्थात समन्यवः । दृढा चिद्यमयिष्णवः ॥४०१॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । गन्ता । मा । रिषण्यत । प्रस्थावानः । प्र । स्थावानः । मा । अप । स्थात । समन्यवः । स । मन्यवः । दृढा । चित् । यमयिष्णवः ॥४०१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 401
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
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पदार्थ -
(आ गन्त) हे परमात्मज्ञानवैराग्य रश्मियो! तुम मेरे अन्दर आओ (प्रस्थावानः-मा रिषण्यत) तुम प्रस्थान करते हुए मुझे हिंसित मत करो—आकर मेरे अन्दर बैठ जाना—बैठकर प्रस्थान न करना यदि हिंसित करना हो, तो केवल पापवासनाओं को हिंसित कर देना (समन्यवः-मा अपस्थात्) मेरी पापवासनाओं से सक्रोध हो मेरे अन्दर से पृथक् न होओ, (दृढा-चित्-यमयिष्णवः) तुम तो कठिन पापों को भी यमन करने का शील रखने वाले हो।

भावार्थ - उपासक के अन्दर जब परमात्मा की ज्ञानवैराग्यधाराएँ आ जाती हैं, फिर उसे निकल कर पीड़ित नहीं करती हैं कदाचित् उपासक के अन्दर पापवासना हो भी उससे क्रोधित होकर पृथक् नहीं होती अपितु पृथक् होने का प्रसङ्ग ही क्या वह तो कठिन पापसंस्कारों पर भी अधिकार कर दूर भगा देती हैं॥३॥

विशेष - ऋषिः—सौभरिः (परमात्मस्वरूप को अपने अन्दर भली-भाँति भरण धारण करने से सम्पन्न)॥ देवता—मरुतः “इन्द्रसम्बद्धा मरुतः” (परमात्म सम्बन्धीज्ञान वैराग्य रश्मियाँ जो बन्धनकारण पापवासनाओं को मारने वाले हैं)॥<br>

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