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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 402
ऋषिः - सौभरि: काण्व: देवता - इन्द्रः छन्दः - ककुप् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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आ꣡ या꣢ह्य꣣य꣢꣫मिन्द꣣वे꣡ऽश्व꣢पते꣣ गो꣡प꣢त꣣ उ꣡र्व꣢रापते । सो꣡म꣢ꣳ सोमपते पिब ॥४०२॥

स्वर सहित पद पाठ

आ꣢ । या꣣हि । अय꣢म् । इ꣡न्द꣢꣯वे । अ꣡श्व꣢꣯पते । अ꣡श्व꣢꣯ । प꣣ते । गो꣡प꣢꣯ते । गो । प꣣ते । उ꣡र्व꣢꣯रापते । उ꣡र्व꣢꣯रा । प꣣ते । सो꣡म꣢꣯म् । सो꣣मपते । सोम । पते । पिब ॥४०२॥


स्वर रहित मन्त्र

आ याह्ययमिन्दवेऽश्वपते गोपत उर्वरापते । सोमꣳ सोमपते पिब ॥४०२॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । याहि । अयम् । इन्दवे । अश्वपते । अश्व । पते । गोपते । गो । पते । उर्वरापते । उर्वरा । पते । सोमम् । सोमपते । सोम । पते । पिब ॥४०२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 402
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
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पदार्थ -
(अश्वपते) हे मेरे व्यापनशील मन के पालक (गोपते) मेरी इन्द्रियों के पालक (उर्वरापते) मेरी बहुत अरों—गतिक्रमों वाली देहशकटी के पालक (सोमपते) मेरे सौम्यभाव उपासनारस के पालक (इन्दवे-आयाहि) इस आर्द्र स्नेह भरे उपासनारस के लिये (सोमं पिब-अयम्) उपासनारस का पान कर—स्वीकार कर यह जो तेरे लिये निष्पन्न किया॥

भावार्थ - परमात्मन्! तू मेरे मन का रक्षक है उसे स्थिर एवं पवित्र कर—रख, तू इन्द्रियों का रक्षक है। इन्हें संयम में रख, तू बहुत गति वाली देह—गाडी का रक्षक है इसे अच्छे मार्ग में चला, तू सोम्यभावों उपासनारसों का रक्षक है, उन्हें निरन्तर बनाए रख। तू आर्द्र स्नेह भरे उपासनारस के लिए आ—उपासनारस का पान कर—स्वीकार कर यह तैय्यार है—यह समर्पित है॥४॥

विशेष - ऋषिः—सौभरिः (परमात्मस्वरूप को अपने अन्दर भली-भाँति भरण धारण करने से सम्पन्न)॥<br>

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