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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 428
ऋषिः - ऋण0त्रसदस्यू
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिपदा अनुष्टुप्पिपीलिकामध्या
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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प꣢र्यू꣣ षु꣡ प्र ध꣢꣯न्व꣣ वा꣡ज꣢सातये꣣ प꣡रि꣢ वृ꣣त्रा꣡णि꣢ स꣣क्ष꣡णिः꣢ । द्वि꣣ष꣢स्त꣣र꣡ध्या꣢ ऋण꣣या꣡ न꣢ ईरसे ॥४२८॥
स्वर सहित पद पाठप꣡रि꣢꣯ । उ꣣ । सु꣢ । प्र । ध꣣न्व । वा꣡ज꣢꣯सातये । वा꣡ज꣢꣯ । सा꣣तये । प꣡रि꣢꣯ । वृ꣣त्रा꣡णि꣢ । स꣣क्ष꣡णिः꣢ । स꣣ । क्ष꣡णिः꣢꣯ । द्वि꣣षः꣢ । त꣣र꣡ध्यै꣢ । ऋ꣣णयाः꣢ । ऋ꣣ण । याः꣢ । नः꣢ । ईरसे ॥४२८॥
स्वर रहित मन्त्र
पर्यू षु प्र धन्व वाजसातये परि वृत्राणि सक्षणिः । द्विषस्तरध्या ऋणया न ईरसे ॥४२८॥
स्वर रहित पद पाठ
परि । उ । सु । प्र । धन्व । वाजसातये । वाज । सातये । परि । वृत्राणि । सक्षणिः । स । क्षणिः । द्विषः । तरध्यै । ऋणयाः । ऋण । याः । नः । ईरसे ॥४२८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 428
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 9;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 9;
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पदार्थ -
हे मेरे उपासनारस तू (वाजसातये) अमृत—अन्नभोग—प्राप्ति के लिये (उ सु) अवश्य सुन्दररूप में (परिप्रधन्व) परिपूर्ण प्रगति कर (सक्षणिः) तू सहनशील हुआ (वृत्राणि परि) पापभावों को परे कर (द्विषः-तरध्यै) द्वेषभावनाओं-विरोधी विचारों के पार करने को (ऋणयाः-नः-ईरसे) ऋणभार ले जाने, वहन करने, चुकाने वाला तू हमें प्रेरित करता है।
भावार्थ - उपासनारस अमृतभोग प्राप्ति के लिये भली-भाँति प्रगति करता है शान्तरूप सहनशील समस्त पापभावों को परे करता है द्वेष प्रवृत्तियों को तरने, पार करने के लिए ऊपर भाररूप ऋण अन्यों के द्वारा उपकारों को चुकानेवाला बन, हमें प्रेरित करता है॥२॥
विशेष - ऋषिः—ऋणत्रसदस्यू ऋषी (ऋणत्रास को क्षीण करने वाले जप और स्वाध्यायकर्ता)॥ देवता—पवमानः सोमः (आनन्दप्रद उपासनारस)॥ छन्दः—त्रिपदा अनुष्टुप्, पिपीलिकामध्या॥<br>
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