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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 433
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - मरुतः छन्दः - द्विपदा विराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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क꣢ ईं꣣꣬ व्य꣢꣯क्ता꣣ न꣢रः꣣ स꣡नी꣢डा रु꣣द्र꣢स्य꣣ म꣢र्या꣣ अ꣢था꣣ स्व꣡श्वाः꣢ ॥४३३॥

स्वर सहित पद पाठ

के꣢ । ई꣣म् । व्य꣡क्ता꣢ । वि । अ꣣क्ताः । न꣡रः꣢꣯ । स꣡नी꣢꣯डाः । स । नी꣣डाः । रुद्र꣡स्य꣢ । म꣡र्याः꣢꣯ । अ꣡थ꣢꣯ । स्वश्वाः꣢꣯ । सु꣣ । अ꣡श्वाः꣢꣯ ॥४३३॥


स्वर रहित मन्त्र

क ईं व्यक्ता नरः सनीडा रुद्रस्य मर्या अथा स्वश्वाः ॥४३३॥


स्वर रहित पद पाठ

के । ईम् । व्यक्ता । वि । अक्ताः । नरः । सनीडाः । स । नीडाः । रुद्रस्य । मर्याः । अथ । स्वश्वाः । सु । अश्वाः ॥४३३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 433
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 9;
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पदार्थ -
(रुद्रस्य) विश्व में पूर्ण पुरुष परमात्मा के “रुद्रो वै पुरुषः” [जै॰ ३।११३] (मर्य्याः) मनुष्य हितकारी (अथ) तथा (स्वश्वाः) सुष्ठु संयत इन्द्रिय घोड़े जिनसे हो जाते हैं ऐसे (सनीडाः) समानस्थान वाले (व्यक्ताः) भासित—भासमान (नरः) नायक सञ्चालक (के-ईम्) कौन ही हैं? सुखप्रद हैं।

भावार्थ - परमात्मा के व्यापन धर्म मनुष्यों के हितकर बन्धन वासनाओं को मारने वाले इन्द्रियों में संयमशक्ति देने वाले परस्पर एकाङ्ग एकक्रम में रहने वाले चलने वाले मोक्ष की ओर ले जाने वाले विश्व में या अन्तःकरण में भासमान कुछ या सुख देने वाले व्यापन-धर्म हैं॥७॥

विशेष - ऋषिः—वसिष्ठः (परमात्मा में अत्यन्त वसने वाला)॥ देवता—मरुतः (वासनामारक परमात्मा के व्याप्त गुण धर्म)॥ छन्दः—द्विपदा पंक्तिः॥<br>

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