Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 443
ऋषिः - संवर्त आङ्गिरसः देवता - उषाः छन्दः - द्विपदा विराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
5

आ꣡ या꣢हि꣣ व꣡न꣢सा स꣣ह꣡ गाव꣢꣯ सचन्त वर्त꣣निं꣡ यदूध꣢꣯भिः ॥४४३॥

स्वर सहित पद पाठ

आ꣢ । या꣣हि । व꣡न꣢꣯सा । स꣣ह꣢ । गा꣡वः꣢꣯ । स꣣चन्त । वर्त्तनि꣢म् । यत् । ऊ꣡ध꣢꣯भिः ॥४४३॥


स्वर रहित मन्त्र

आ याहि वनसा सह गाव सचन्त वर्तनिं यदूधभिः ॥४४३॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । याहि । वनसा । सह । गावः । सचन्त । वर्त्तनिम् । यत् । ऊधभिः ॥४४३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 443
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 10;
Acknowledgment

पदार्थ -
(वनसा सह) कान्ततेज के साथ (आयाहि) हे परमात्म-ज्योति आ—प्राप्त हो (गावः-वर्तनिं सचन्ते) हमारी स्तुतियाँ अब अध्यात्म मार्ग के लक्ष्य को समवेत करती हैं (यत्) जबकि (ऊधभिः) अनेक दिन रात्रियों के साथ “ऊधः-रात्रिनाम” [निघं॰ १.७] या रात्रि समान स्नेह भावनाओं के साथ।

भावार्थ - परमात्म-ज्योति कमनीय तेज के साथ उपासक के हृदय में आती है। अनेक दिन यात्रियों के सेवन द्वारा या जब हम उपासकों की स्तुतियाँ अध्यात्म मार्ग के लक्ष्य को प्राप्त होती हैं, रात्रि समान स्नेह भावनाओं से संयुक्त होती हैं॥७॥

विशेष - ऋषिः—सम्पातः (परमात्मा से मेल करने वाला उपासक)॥ देवता—उषाः (परमात्मज्योतिः)॥<br>

इस भाष्य को एडिट करें
Top