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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 635
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - सूर्यः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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त꣣र꣡णि꣢र्वि꣣श्व꣡द꣢र्शतो ज्योति꣣ष्कृ꣡द꣢सि सूर्य । वि꣢श्व꣣मा꣡भा꣢सि रोच꣣न꣢म् ॥६३५॥

स्वर सहित पद पाठ

त꣣र꣡णिः꣢ । वि꣣श्व꣡द꣢र्शतः । वि꣣श्व꣢ । द꣣र्षतः । ज्योतिष्कृ꣢त् । ज्यो꣣तिः । कृ꣢त् । अ꣣सि । सूर्य । वि꣡श्व꣢꣯म् । आ । भा꣣सि । रोचन꣢म् ॥६३५॥


स्वर रहित मन्त्र

तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य । विश्वमाभासि रोचनम् ॥६३५॥


स्वर रहित पद पाठ

तरणिः । विश्वदर्शतः । विश्व । दर्षतः । ज्योतिष्कृत् । ज्योतिः । कृत् । असि । सूर्य । विश्वम् । आ । भासि । रोचनम् ॥६३५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 635
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 5; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5;
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पदार्थ -
(सूर्य) हे सर्वत्र सरणशील व्यापनशील परमात्मन्! तू (तरणिः) मुमुक्षुओं को दुःखसागर से तारने वाला है (विश्वदर्शतः) सबका दर्शनीय (ज्योतिष्कृत्-असि) ज्ञानज्योति का करने वाला—देने वाला है (विश्वं रोचनम्-आभासि) समस्त प्रकाश वाले को तू ही प्रकाशित करता है—प्रकाश देता है।

भावार्थ - सर्वत्र व्यापनशील परमात्मा मुमुक्षु उपासकों को दुःखसागर से तारने वाला, सबके दर्शन योग्य, अन्तःकरण में ज्ञानज्योति करने वाला समस्त प्रकाश वाले पदार्थों का प्रकाशदाता है उसकी उपासना से ज्ञानप्रकाश तथा अमृत आनन्द को प्राप्त करना चाहिए॥९॥

विशेष - <br>

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