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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 645
ऋषिः - प्रजापतिः देवता - इन्द्रः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - 0
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यो꣢꣯ मꣳहि꣢꣯ष्ठो मघोनामꣳशुर्न शोचिः । चि꣡कि꣢त्वो अ꣣भि꣡ नो꣢ न꣣ये꣡न्द्रो꣢ विदे꣢꣯ तमु꣢꣯ स्तुहि ॥६४५

स्वर सहित पद पाठ

यः꣢ । मँ꣡हि꣢꣯ष्ठः । म꣣घो꣡ना꣢म् । अँ꣣शुः꣢ । न । शो꣣चिः꣢ । चि꣡कि꣢꣯त्वः । अ꣣भि꣢ । नः꣣ । नय । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । वि꣣दे꣢ । तम् । उ꣣ । स्तुहि ॥६४५॥


स्वर रहित मन्त्र

यो मꣳहिष्ठो मघोनामꣳशुर्न शोचिः । चिकित्वो अभि नो नयेन्द्रो विदे तमु स्तुहि ॥६४५


स्वर रहित पद पाठ

यः । मँहिष्ठः । मघोनाम् । अँशुः । न । शोचिः । चिकित्वः । अभि । नः । नय । इन्द्रः । विदे । तम् । उ । स्तुहि ॥६४५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 645
(कौथुम) महानाम्न्यार्चिकः » प्रपाठक » ; अर्ध-प्रपाठक » ; दशतिः » ; मन्त्र » 5
(राणानीय) महानाम्न्यार्चिकः » अध्याय » ; खण्ड » ;
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पदार्थ -
(मघोनां मंहिष्ठः-यः) धनवानों में अत्यन्त दानी जो परमात्मा है (अंशुः-न शोचिः) अंशुमान्—रश्मि वाले सूर्य के समान प्रकाशमान है (चिकित्वः) वह तू ज्ञानवन् परमात्मन् (नः-अभि नय) हमें ले चल (इन्द्रः-विदे) ऐश्वर्यवान् परमात्मा हमें ज्ञान दे—देता है अतः (तम्-उ स्तुहि) हे मन! तू उसकी स्तुति कर।

भावार्थ - धन वालों में अत्यन्त दानदाता परमात्मा ही है, जो भोग भी देता है, भोग के साधन भी देता है—सूर्य समान तेजस्वी या प्रकाशमान है। योगी के अन्दर उसका ही प्रकाश होता है। वह ज्ञानवान् हुआ हमें ले जाता है। “अग्ने नय” इस प्रकार हमें ले जाता है। उस ऐसे परमात्मा की रे मन स्तुति कर॥५॥

विशेष - <br>

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