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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 657
ऋषिः - शतं वैखानसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
प꣡व꣢मानस्य ते कवे꣣ वा꣢जि꣣न्त्स꣡र्गा꣢ असृक्षत । अ꣡र्व꣢न्तो꣣ न꣡ श्र꣢व꣣स्य꣡वः꣢ ॥६५७॥
स्वर सहित पद पाठप꣡व꣢꣯मानस्य । ते꣣ । कवे । वा꣡जि꣢꣯न् । स꣡र्गाः꣢꣯ । अ꣣सृक्षत । अ꣡र्व꣢꣯न्तः । न । श्र꣣वस्य꣡वः꣢ ॥६५७॥
स्वर रहित मन्त्र
पवमानस्य ते कवे वाजिन्त्सर्गा असृक्षत । अर्वन्तो न श्रवस्यवः ॥६५७॥
स्वर रहित पद पाठ
पवमानस्य । ते । कवे । वाजिन् । सर्गाः । असृक्षत । अर्वन्तः । न । श्रवस्यवः ॥६५७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 657
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
(कवे वाजिन्) हे सर्वज्ञ वक्ता तथा अमृतभोग वाले सोम परमात्मन्! “अमृतोऽन्नं वै वाजः” [जै॰ २.१९३] (ते पवमानस्य) तुझ आनन्दधारा में प्राप्त होते हुए के (सर्गाः-असृक्षत) अमृत आनन्दप्रवाह उपासकों के अन्दर निरन्तर प्रवाहित होने लगते हैं “सृज धातोः क्सश्छान्दसः” (अर्वन्तः-न श्रवस्यवः) प्रशंसनीय प्रगतिशील प्रशस्त गन्तव्य स्थान को चाहते हुए उस पर पहुँचने वाले घोड़ों की भाँति “श्रवस्युः श्रवणीयम्” [निरु॰ ११.५०] “श्रव इच्छमानः प्रशंसामिच्छमानः” [निरु॰ ९.१०]।
भावार्थ - सर्वज्ञ अमृतानन्दभोगप्रद परमात्मन्! तुझ आनन्दप्रवाहों से प्राप्त होने वाले के आनन्द प्रवाह प्रवाहित होते हुए ऐसे मुझ उपासक को प्राप्त होते हैं जैसे प्रगतिशील प्रशंसनीय घोड़े छुटे हुए प्रशंसनीय प्राप्तव्य स्थान को चाहते हुए उसे प्राप्त करते हैं॥१॥
विशेष - ऋषिः—वैखानसः (अध्यात्म ज्ञान का विशेष खनन करने वाले उपासक)॥ देवता—पवमानः सोमः (आनन्दधारा में प्राप्त होता हुआ परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>
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