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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 658
ऋषिः - शतं वैखानसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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अ꣢च्छा꣣ को꣡शं꣢ मधु꣣श्चु꣢त꣣म꣡सृ꣢ग्रं꣣ वा꣡रे꣢ अ꣣व्य꣡ये꣢ । अ꣡वा꣢वशन्त धी꣣त꣡यः꣢ ॥६५८॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡च्छ꣢꣯ । को꣡श꣢꣯म् । म꣣धुश्चु꣡त꣢म् । म꣣धु । श्चु꣡त꣢꣯म् । अ꣡सृ꣢꣯ग्रम् । वा꣡रे꣢꣯ । अ꣣व्य꣡ये꣣ । अ꣡वा꣢꣯वशन्त । धी꣣त꣡यः꣢ ॥६५८॥


स्वर रहित मन्त्र

अच्छा कोशं मधुश्चुतमसृग्रं वारे अव्यये । अवावशन्त धीतयः ॥६५८॥


स्वर रहित पद पाठ

अच्छ । कोशम् । मधुश्चुतम् । मधु । श्चुतम् । असृग्रम् । वारे । अव्यये । अवावशन्त । धीतयः ॥६५८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 658
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(अव्यये वारे) अनश्वर वरणीय परमात्मा में वर्तमान (मधुश्चुतं कोशम्) मधु चुवाने वाले कोश को (धीतयः-अवावशन्त) धारणाध्यान प्रज्ञा वाले उपासक नितान्त चाहते हैं अतः वे (अच्छा-असृग्रन्) अपने अभिमुख खोलते हैं प्रवाहित करते हैं प्राप्त करते हैं।

भावार्थ - अविनाशी वरणीय परमात्मा के अन्दर वर्तमान मधुर आनन्दभरे कोश—थैले को धारणाध्यान प्रज्ञा वाले उपासक नितान्त चाहते हैं अतः वे उसे अपनी ओर खोल लेते हैं—प्रवाहित कर लेते हैं—प्राप्त कर लेते हैं॥२॥

विशेष - <br>

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