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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 666
ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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आ꣡ या꣢हि सुषु꣣मा꣢꣫ हि त꣣ इ꣢न्द्र꣣ सो꣢मं꣣ पि꣡बा꣢ इ꣣म꣢म् । एदं꣢꣫ ब꣣र्हिः꣡ स꣢दो꣣ म꣡म꣢ ॥६६६॥

स्वर सहित पद पाठ

आ꣢ । याहि꣣ । सुषुम꣢ । हि । ते꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯ । सो꣡मम्꣢꣯ । पिब । इ꣡म꣢꣯म् । आ । इ꣣द꣢म् । ब꣣र्हिः꣢ । स꣣दः । म꣡म꣢꣯ ॥६६६॥


स्वर रहित मन्त्र

आ याहि सुषुमा हि त इन्द्र सोमं पिबा इमम् । एदं बर्हिः सदो मम ॥६६६॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । याहि । सुषुम । हि । ते । इन्द्र । सोमम् । पिब । इमम् । आ । इदम् । बर्हिः । सदः । मम ॥६६६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 666
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
(इन्द्र) ऐश्वर्यवान् परमात्मन्! तू (आ याहि) आ जा (ते) तेरे लिए (सोमं सुषुम हि) हम उपासनारस को सम्पादन करते हैं (इमं पिब) इसे पान कर—स्वीकार कर (मम-इदं बर्हिः) मेरे इस हृदयाकाश में “बर्हिः-अन्तरिक्षनाम” [निघं॰ १.३] (आ सदः) आ बैठ।

भावार्थ - परमात्मा के लिए उपासनारस तैयार करना उसे स्वीकार कराने का आग्रह करना, अपने हृदयकाश में समन्तरूप से बिठाना चाहिये॥१॥

विशेष - ऋषिः—इरिम्बिठः (अन्तरिक्ष में—हृदयाकाश में या शब्द में—स्तुति वचन में गति जिसकी है ऐसा विद्वान् “बिठमन्तरिक्षम्” [निरु॰ ६.३०] “बिट् शब्दे” [भ्वा॰] “पृषोदरादित्वादिष्टसिद्धिः”)॥<br>देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥

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