Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 675
ऋषिः - सप्तर्षयः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती समा सतोबृहती) स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम -
3

पु꣣नानः꣡ सो꣢म꣣ धा꣡र꣢या꣣पो꣡ वसा꣢꣯नो अर्षसि । आ꣡ र꣢त्न꣣धा꣡ योनि꣢꣯मृ꣣त꣡स्य꣢ सीद꣣स्यु꣡त्सो꣢ दे꣣वो꣡ हि꣢र꣣ण्य꣡यः꣢ ॥६७५॥

स्वर सहित पद पाठ

पु꣣नानः꣢ । सो꣡म । धा꣡र꣢꣯या । अ꣣पः꣢ । व꣡सा꣢꣯नः । अ꣣र्षसि । आ । र꣣त्नधाः꣢ । र꣣त्न । धाः꣢ । यो꣡नि꣢꣯म् । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । सी꣣दसि । उ꣡त्सः꣢꣯ । उत् । सः꣣ । देवः꣢ । हि꣣रण्य꣡यः꣢ ॥६७५॥


स्वर रहित मन्त्र

पुनानः सोम धारयापो वसानो अर्षसि । आ रत्नधा योनिमृतस्य सीदस्युत्सो देवो हिरण्ययः ॥६७५॥


स्वर रहित पद पाठ

पुनानः । सोम । धारया । अपः । वसानः । अर्षसि । आ । रत्नधाः । रत्न । धाः । योनिम् । ऋतस्य । सीदसि । उत्सः । उत् । सः । देवः । हिरण्ययः ॥६७५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 675
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
Acknowledgment

पदार्थ -
(सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू (पुनानः) मुझको शोधता हुआ—पवित्र करता हुआ, तथा (धारया) ध्यान धारणा से (अपः-वसानः) मेरे प्राणों को “आपो वै प्राणाः” [श॰ ३.८.२.४] आच्छादित—आवृत करता हुआ—रक्षित करता हुआ (अर्षसि) प्राप्त होता है (रत्नधा) रमणीय भोगों का धारण करने वाला (ऋतस्य योनिम्-आसीदसि) अध्यात्मयज्ञ में “यज्ञो वा ऋतस्य योनिः” [श॰ १.३.४.१६] आविराजता है (हिरण्ययः-उत्सः-देवः) तू ही सुनहरा अमृतकूप, देव अमृतधाम मोक्षधाम है “असौ वै द्युलोक उत्सो देवः” [जै॰ १.१२१] “त्रिपादस्यामृतं दिवि” [ऋ॰ १०.९०.३]।

भावार्थ - हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू मुझ उपासक को पवित्र करता हुआ तथा मेरे प्राणों को ध्यानधारणा से सुरक्षित करता हुआ प्राप्त होता है। तू रमणीय भोगों को धारण करने वाला मेरे अध्यात्मयज्ञ में विराजमान होता है तू ही मोक्षधाम या सुनहरी अमृत कूप है॥१॥

विशेष - ऋषिः—अमहीयुः (पृथिवी को नहीं मोक्ष को चाहने वाला)॥ देवता—सोमः (शान्तस्वरूप परमात्मा)॥<br>

इस भाष्य को एडिट करें
Top