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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 730
ऋषिः - कुसीदी काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
न꣡ हि त्वा꣢꣯ शूर दे꣣वा꣡ न मर्ता꣢꣯सो꣣ दि꣡त्स꣢न्तम् । भी꣣मं꣢꣫ न गां वा꣣र꣡य꣢न्ते ॥७३०॥
स्वर सहित पद पाठन । हि । त्वा꣣ । शूर । देवाः꣢ । न । म꣡र्ता꣢꣯सः । दि꣡त्स꣢꣯न्तम् । भी꣣म꣢म् । न । गाम् । वा꣣र꣡य꣢न्ते ॥७३०॥
स्वर रहित मन्त्र
न हि त्वा शूर देवा न मर्तासो दित्सन्तम् । भीमं न गां वारयन्ते ॥७३०॥
स्वर रहित पद पाठ
न । हि । त्वा । शूर । देवाः । न । मर्तासः । दित्सन्तम् । भीमम् । न । गाम् । वारयन्ते ॥७३०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 730
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
(शूर) हे समर्थ परमात्मन्! (त्वा दित्सन्तम्) तुझ यथा-योग्य कर्मफल देने की इच्छा करते हुए को (न हि देवाः) न ही देव (न मर्त्तासः) न मनुष्य (वारयन्ते) हटा पाते हैं (भीमं गां न) भयङ्कर वृषभ को जैसे उसके बलकार्य से कोई नहीं हटा सकता है।
भावार्थ - जैसे भयङ्कर वृषभ को उसके बलकार्य से कोई नहीं हटा पाता है ऐसे ही परमात्मा को उसके बलकार्य करते हुए कर्मफल के देते हुए को कोई नहीं रोक सकता है॥३॥
विशेष - <br>
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