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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 772
ऋषिः - अग्निश्चाक्षुषः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
3
अ꣣या꣡ प꣢वस्व देव꣣यू꣡ रेभ꣢꣯न्प꣣वि꣢त्रं꣣ प꣡र्ये꣢षि वि꣣श्व꣡तः꣢ । म꣢धो꣣र्धा꣡रा꣢ असृक्षत ॥७७२॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣या꣢ । प꣣वस्व । देवयुः꣢ । रे꣡भ꣢꣯न् । प꣣वि꣡त्र꣢म् । प꣡रि꣢꣯ । ए꣣षि । वि꣡श्व꣢तः । म꣡धोः꣢꣯ । धा꣡रा꣢꣯ । अ꣣सृक्षत ॥७७२॥
स्वर रहित मन्त्र
अया पवस्व देवयू रेभन्पवित्रं पर्येषि विश्वतः । मधोर्धारा असृक्षत ॥७७२॥
स्वर रहित पद पाठ
अया । पवस्व । देवयुः । रेभन् । पवित्रम् । परि । एषि । विश्वतः । मधोः । धारा । असृक्षत ॥७७२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 772
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 22; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 6; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 22; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 6; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
हे सोम—शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू (देवयुः) मुमुक्षुओं को चाहने वाला उनकी हितकामना करने वाला (अया) इस उपासना से (पवस्व) प्राप्त हो (पवित्रे रेभन् विश्वतः पर्येषि) उपासक के हृदय में प्रवचन शब्द करता हुआ उसे सब प्रकार से प्राप्त हो रहा है (मधोः-धाराः-असृक्षत) तेरे द्वारा मधुरस की धारायें छोड़ी जाती हैं।
भावार्थ - शान्तस्वरूप परमात्मा उपासक के हृदय में प्रवचन करने वाला मुमुक्षुजनों को चाहने वाला उसके सब ओर रहता है और मधुर धाराओं के समान अपना अमृतदर्शन कराता है॥१॥
विशेष - ऋषिः—चाक्षुषोऽग्निः (दृष्टिविज्ञान में कुशल अग्रणी उपासक) इति द्वयोः। प्रजापतिः (इन्द्रियों का स्वामी) इति तृतीयायाः॥ देवता—सोमः (शान्तस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>
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