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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 783
ऋषिः - कश्यपो मारीचः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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अ꣢श्वो꣣ न꣡ च꣢क्रदो꣣ वृ꣢षा꣣ सं꣡ गा इ꣢꣯न्दो꣣ स꣡मर्व꣢꣯तः । वि꣡ नो꣢ रा꣣ये꣡ दुरो꣢꣯ वृधि ॥७८३॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡श्वः꣢꣯ । न । च꣣क्रदः । वृ꣡षा꣢꣯ । सम् । गाः । इ꣣न्दो । स꣢म् । अ꣡र्व꣢꣯तः । वि । नः꣣ । राये꣢ । दु꣡रः꣢꣯ । वृ꣣धि ॥७८३॥


स्वर रहित मन्त्र

अश्वो न चक्रदो वृषा सं गा इन्दो समर्वतः । वि नो राये दुरो वृधि ॥७८३॥


स्वर रहित पद पाठ

अश्वः । न । चक्रदः । वृषा । सम् । गाः । इन्दो । सम् । अर्वतः । वि । नः । राये । दुरः । वृधि ॥७८३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 783
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
(इन्दो) हे रसीले शान्तस्वरूप परमात्मन्! (अश्वः-न सं चक्रदः) घोड़े की भाँति संक्रन्दन करता है, सर्वत्र व्यापता है, व्याप रहा है। (वृषा) सुखवर्षक हुआ (गाः सं॰) हमारे इन्द्रियों को भी व्याप रहा है, इन्द्रियों द्वारा तेरा प्रत्यक्ष हो रहा है। (अर्वतः सं॰) हमारे मन आदि गतिशील को भी व्याप रहा है, मन आदि द्वारा तेरा भानचिन्तन हो रहा है। (नः) हमारे अभीष्ट (राये) मोक्षैश्वर्य प्राप्ति के निमित्त (दुरः-विवृधि) द्वारों को खोल दे—बाधक अज्ञान पाप आदि को हटा दे।

भावार्थ - हे आनन्दरसपूर्ण परमात्मन्! जैसे घोड़ा मार्ग में व्यापता है ऐसे तू विश्व में व्याप रहा है। हमारी इन्द्रियों में व्याप रहा है। उनसे प्रत्यक्ष हो रहा हमारे मन आदि में भी व्याप रहा है—चिन्तन ध्यान में आ रहा है। हमारे मोक्षैश्वर्य के निमित्त अज्ञान पाप को परे कर दे॥३॥

विशेष - <br>

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