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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 851
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः देवता - मरुतः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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आ꣡दह꣢꣯ स्व꣣धा꣢꣫मनु꣣ पु꣡न꣢र्गर्भ꣣त्व꣡मे꣢रि꣣रे꣢ । द꣡धा꣢ना꣣ ना꣡म꣢ य꣣ज्ञि꣡य꣢म् ॥८५१॥

स्वर सहित पद पाठ

आ꣢त् । अ꣡ह꣢꣯ । स्व꣣धा꣢म् । स्व꣣ । धा꣢म् । अ꣡नु꣢꣯ । पु꣡नः꣢꣯ । ग꣣र्भत्व꣢म् । ए꣣रिरे꣢ । आ꣣ । इरिरे꣢ । द꣡धा꣢꣯नाः । ना꣡म꣢꣯ । य꣣ज्ञि꣡य꣢म् ॥८५१॥


स्वर रहित मन्त्र

आदह स्वधामनु पुनर्गर्भत्वमेरिरे । दधाना नाम यज्ञियम् ॥८५१॥


स्वर रहित पद पाठ

आत् । अह । स्वधाम् । स्व । धाम् । अनु । पुनः । गर्भत्वम् । एरिरे । आ । इरिरे । दधानाः । नाम । यज्ञियम् ॥८५१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 851
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(आत्-अह) बस, अन्तर—परमात्मसदृश गुण प्राप्त कर मुक्त गण (स्वधाम्-अनु) अपनी धृति—स्थिति के अनुसार (पुनः-गर्भत्वम्-एरिरे) पुनः परमात्मा के गर्भभाव को प्राप्त हो जाते हैं उसके अन्दर विराजमान हो जाते हैं (यज्ञियं नाम दधानाः) सङ्गमनीय आत्मसमर्पण नम्रभाव को धारण करते हुए।

भावार्थ - उपासना से उपासकजन उपास्य परमात्मा के गुण धारण कर अपने धृति स्थिति—स्व ज्ञान गति के अनुसार परमात्मा के अन्दर पुनः प्राप्ति अनुभव करते हैं जैसे संसार में आने से पूर्व मोक्ष में रहते थे सङ्गमनीय आत्मसमर्पणरूप नम्रीभाव को धारण करते हुए॥२॥

विशेष - <br>

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