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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 898
ऋषिः - बृहन्मतिराङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
आ꣣शु꣡र꣢र्ष बृहन्मते꣣ प꣡रि꣢ प्रि꣣ये꣢ण꣣ धा꣡म्ना꣢ । य꣡त्र꣢ दे꣣वा꣢꣫ इति꣣ ब्रु꣡व꣢न् ॥८९८॥
स्वर सहित पद पाठआ꣣शुः꣡ । अ꣣र्ष । बृहन्मते । बृहत् । मते । प꣡रि꣢꣯ । प्रि꣣ये꣡ण꣢ । धा꣡म्ना꣢꣯ । य꣡त्र꣢꣯ । दे꣡वाः꣢ । इ꣡ति꣢꣯ । ब्रु꣡व꣢꣯न् ॥८९८॥
स्वर रहित मन्त्र
आशुरर्ष बृहन्मते परि प्रियेण धाम्ना । यत्र देवा इति ब्रुवन् ॥८९८॥
स्वर रहित पद पाठ
आशुः । अर्ष । बृहन्मते । बृहत् । मते । परि । प्रियेण । धाम्ना । यत्र । देवाः । इति । ब्रुवन् ॥८९८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 898
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
(बृहन्मते) हे बड़ी मान्यता वाले—सर्वाधिक मानने योग्य शान्त-स्वरूप परमात्मन्! तू (आशुः) व्यापनशील हुआ (प्रियेण धाम्ना) तेरा प्रिय धाम है इस हेतु (परि-अर्ष) परिप्राप्त हो (यत्र देवाः) जहाँ देव—दिव्य धर्म वाले हैं वह स्थान हृदय है, हृदय में पाँचों ज्ञानेन्द्रियों का विषयगति मन बुद्धि चित्त अहङ्कार की स्थिति सत्त्व रज तमोगुण आत्मा भी है और तेरी प्राप्ति भी वहाँ हुआ करती है*29 (इति ब्रुवन्) ऐसा ब्रह्मवेत्ता परम्परा से कहते हैं*30 मानते हैं॥१॥
टिप्पणी -
[*29. “पुण्डरीकं नवद्वारं त्रिभिर्गुणेभिरावृतम्। तस्मिन् यद् यक्षमातन्वत् तद्वै ब्रह्मविदो विदुः॥” [अथर्व॰ १०.८.४३]।] [*30. ‘ब्रुवन्—अब्रुवन्—ब्रुवन्ति’ अडभावश्छान्दसः “बहुलं छन्दस्यमाङ् योगेऽपि” [अष्टा॰ ६.४.७५] ईश्वरावतारवादस्य गन्धोऽपि नात्र यश्च भगवदाचार्येण कल्पितः, सायणभाष्यसम्मतश्च।]
विशेष - ऋषिः—बृहन्मतिः (बड़ी मान्यता बड़ी स्तुति वाला ऊँचा आस्तिक)॥ देवता—सोमः (शान्तस्वरूप परमात्मा)॥<br>
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