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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 898
ऋषिः - बृहन्मतिराङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
17
आ꣣शु꣡र꣢र्ष बृहन्मते꣣ प꣡रि꣢ प्रि꣣ये꣢ण꣣ धा꣡म्ना꣢ । य꣡त्र꣢ दे꣣वा꣢꣫ इति꣣ ब्रु꣡व꣢न् ॥८९८॥
स्वर सहित पद पाठआ꣣शुः꣡ । अ꣣र्ष । बृहन्मते । बृहत् । मते । प꣡रि꣢꣯ । प्रि꣣ये꣡ण꣢ । धा꣡म्ना꣢꣯ । य꣡त्र꣢꣯ । दे꣡वाः꣢ । इ꣡ति꣢꣯ । ब्रु꣡व꣢꣯न् ॥८९८॥
स्वर रहित मन्त्र
आशुरर्ष बृहन्मते परि प्रियेण धाम्ना । यत्र देवा इति ब्रुवन् ॥८९८॥
स्वर रहित पद पाठ
आशुः । अर्ष । बृहन्मते । बृहत् । मते । परि । प्रियेण । धाम्ना । यत्र । देवाः । इति । ब्रुवन् ॥८९८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 898
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम मन्त्र में परमात्मा का आह्वान है ॥
पदार्थ
हे (बृहन्मते) महामति से युक्त एवं महामति को देनेवाले परमेश ! (यत्र देवाः) जहाँ दिव्यगुण रहते हैं, वहां मेरा निवास है (इति ब्रुवन्) यह कहते हुए आप (प्रियेण धाम्ना) अपने मधुर तेज के साथ (आशुः) शीघ्रकारी होते हुए (परि अर्ष) हमारे जीवन में चारों ओर व्याप्त हो जाएँ ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा की कृपा प्राप्त करने के लिए अपने आत्मा में दिव्य गुणों को धारण करना चाहिए ॥१॥
पदार्थ
(बृहन्मते) हे बड़ी मान्यता वाले—सर्वाधिक मानने योग्य शान्त-स्वरूप परमात्मन्! तू (आशुः) व्यापनशील हुआ (प्रियेण धाम्ना) तेरा प्रिय धाम है इस हेतु (परि-अर्ष) परिप्राप्त हो (यत्र देवाः) जहाँ देव—दिव्य धर्म वाले हैं वह स्थान हृदय है, हृदय में पाँचों ज्ञानेन्द्रियों का विषयगति मन बुद्धि चित्त अहङ्कार की स्थिति सत्त्व रज तमोगुण आत्मा भी है और तेरी प्राप्ति भी वहाँ हुआ करती है*29 (इति ब्रुवन्) ऐसा ब्रह्मवेत्ता परम्परा से कहते हैं*30 मानते हैं॥१॥
टिप्पणी
[*29. “पुण्डरीकं नवद्वारं त्रिभिर्गुणेभिरावृतम्। तस्मिन् यद् यक्षमातन्वत् तद्वै ब्रह्मविदो विदुः॥” [अथर्व॰ १०.८.४३]।] [*30. ‘ब्रुवन्—अब्रुवन्—ब्रुवन्ति’ अडभावश्छान्दसः “बहुलं छन्दस्यमाङ् योगेऽपि” [अष्टा॰ ६.४.७५] ईश्वरावतारवादस्य गन्धोऽपि नात्र यश्च भगवदाचार्येण कल्पितः, सायणभाष्यसम्मतश्च।]
विशेष
ऋषिः—बृहन्मतिः (बड़ी मान्यता बड़ी स्तुति वाला ऊँचा आस्तिक)॥ देवता—सोमः (शान्तस्वरूप परमात्मा)॥<br>
विषय
बृहन्मति की माधुर्यमयी तेजस्विता
पदार्थ
गत मन्त्र में वर्णन था कि जैसे पृथिवी-भ्रमण का केन्द्र सूर्य है उसी प्रकार मैं ज्ञान का केन्द्र बनूँ। इस प्रकार बना हुआ यह व्यक्ति प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'बृहन्मति' [विशाल बुद्धिवाला] बन जाता है। ज्ञान के कारण ही समझदारी से चलता हुआ यह विषयों में न फँसने से ‘आङ्गिरस’ है।
इस ‘आङ्गिरस बृहन्मति' से प्रभु कहते हैं- हे (बृहन्मते) = विशाल बुद्धिवाले आङ्गिरस! तू (प्रियेण धाम्ना) = अति प्रिय तेज से (आशुः) = शीघ्रता से कार्यों में व्याप्त होनेवाला बनकर (परि अर्ष) = चारों ओर जानेवाला 'परिव्राजक' बन । सर्वत्र विचरण करता हुआ तू औरों के लिए उस ज्ञान के प्रकाश को दे जिसे तूने प्रभुकृपा से प्राप्त किया है । तू इस स्थिति में अपने जीवन का यापन कर यत्र= = जहाँ देवा:=‘अरे ये लोग तो देव हैं' इति इस प्रकार संसार ब्रुवन् - कहे । तेरा जीवन लोकहित में व्यतीत हो, तू लोगों की दृष्टि में 'देव' बन जा ।
भावार्थ
हम बृहन्मति बनकर तेजस्विता से कार्य करते हुए इस प्रकार ज्ञान का प्रसार करें कि लोग हमें देव समझें। हमारे कार्यों में तेजस्विता हो, परन्तु तेजस्विता के साथ माधुर्य हो ।
विषय
missing
भावार्थ
हे (बृहन्मते) महान् ज्ञानसम्पन्न परमात्मन् ! आप (आशुः) सर्वत्र व्यापक होकर (प्रियेण) अतिमनोहर, श्रेष्ठ, (धाम्ना) धारणशील तेज से (परि अर्ष) व्याप्त हो रहे हैं। (यत्र देवाः) जहां जहां विद्वान्गण, या दिव्यगुण से युक्त पृथ्वी, जल वायु आदि पदार्थ हैं वहां ही आप भी व्यापक हैं, वे आप से भिन्न बल नहीं रखते। (इति) इस प्रकार आप (ब्रुवन्) उपदेश करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ आकृष्टामाषाः। २ अमहीयुः। ३ मेध्यातिथिः। ४, १२ बृहन्मतिः। ५ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ६ सुतंभर आत्रेयः। ७ गृत्समदः। ८, २१ गोतमो राहूगणः। ९, १३ वसिष्ठः। १० दृढच्युत आगस्त्यः। ११ सप्तर्षयः। १४ रेभः काश्यपः। १५ पुरुहन्मा। १६ असितः काश्यपो देवलो वा। १७ शक्तिरुरुश्च क्रमेण। १८ अग्निः। १९ प्रतर्दनो दैवोदासिः। २० प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः स्तौ तयोर्वान्यतरः। देवता—१—५, १०–१२, १६-१९ पवमानः सोमः। ६, २० अग्निः। ७ मित्रावरुणो। ८, १३-१५, २१ इन्द्रः। ९ इन्द्राग्नी ॥ छन्द:—१,६, जगती। २–५, ७–१०, १२, १६, २० गायत्री। ११ बृहती सतोबृहती च क्रमेण। १३ विराट्। १४ अतिजगती। १५ प्रागाधं। १७ ककुप् च सतोबृहती च क्रमेण। १८ उष्णिक्। १९ त्रिष्टुप्। २१ अनुष्टुप्। स्वरः—१,६, १४ निषादः। २—५, ७—१०, १२, १६, २० षड्जः। ११, १३, १५, १७ मध्यमः। १८ ऋषभः। १९ धैवतः। २१ गान्धारः॥
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादौ परमात्मानमाह्वयति।
पदार्थः
हे (बृहन्मते) महामते, महामतिप्रदायक परमेश ! [बृहती मतिः यस्य यस्माद् वा स बृहन्मतिः।] (यत्र देवाः) यत्र दिव्यगुणाः सन्ति तत्र मम निवासः (इति ब्रुवन्) इति कथयन् त्वम् (प्रियेण धाम्ना) स्वकीयेन मधुरेण तेजसा सह (आशुः) शीघ्रः सन् (परि अर्ष) अस्माकं जीवनं परितो व्याप्नुहि ॥१॥
भावार्थः
परमात्मनः कृपां प्राप्तुं स्वात्मनि दिव्यगुणा धारणीयाः ॥१॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।३९।१, ‘ब्रुवन्’ इत्यत्र ‘ब्रव॑न्’ इति पाठः।
इंग्लिश (2)
Meaning
O Omniscient God, come readily unto us with Thy beloved halo. Thou art there, where reside the sages. This is Thy teaching !
Meaning
O Soma, spirit of universal joy and infinite light of intelligence, flow fast forward with your own essential and dear light and lustre of form and come where the divines dwell, and proclaim your presence. (Rg. 9-39-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (बृहन्मते) હે મહાન માન્યતાવાળા-સર્વાધિક માનવા યોગ્ય શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (आशुः) વ્યાપનશીલ થઈને (प्रियेण धाम्ना) તારું પ્રિય ધામ છે એ માટે પરિ-અર્થ-પરિ પ્રાપ્ત થા. (यत्र देवाः) જ્યાં દેવ-દિવ્ય ધર્મવાળા છે, તે સ્થાન હૃદય છે, હૃદયમાં પાંચેય જ્ઞાનેન્દ્રિયોની વિષયગતિ મન, બુદ્ધિ, ચિત્ત, અહંકારની સ્થિતિ, સત્વ, રજ, તમોગુણ અને આત્મા પણ રહેલ છે તથા તારી પ્રાપ્તિ પણ ત્યાં જ થયા કરે છે. (इति ब्रुवन्) એમ બ્રહ્મવેત્તાઓ પરંપરાથી કહેતા આવ્યા છે - માને છે. (૧)
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराचीं कृपा प्राप्त होण्यासाठी आपल्या आत्म्यात दिव्य गुणांना धारण केले पाहिजे. ॥१॥
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