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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 914
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
इ꣣च्छ꣡न्नश्व꣢꣯स्य꣣ य꣢꣫च्छिरः꣣ प꣡र्व꣢ते꣣ष्व꣡प꣢श्रितम् । त꣡द्वि꣢दच्छर्य꣣णा꣡व꣢ति ॥९१४॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡च्छ꣢न् । अ꣡श्व꣢꣯स्य । यत् । शि꣡रः꣢꣯ । प꣡र्वते꣢꣯षु । अ꣡प꣢꣯श्रितम् । अ꣡प꣢꣯ । श्रि꣣तम् । त꣢त् । वि꣣दत् । शर्यणा꣡व꣢ति ॥९१४॥
स्वर रहित मन्त्र
इच्छन्नश्वस्य यच्छिरः पर्वतेष्वपश्रितम् । तद्विदच्छर्यणावति ॥९१४॥
स्वर रहित पद पाठ
इच्छन् । अश्वस्य । यत् । शिरः । पर्वतेषु । अपश्रितम् । अप । श्रितम् । तत् । विदत् । शर्यणावति ॥९१४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 914
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(अश्वस्य) गतिशील संसार या जगत् के*59 (यत्-शिरः) जिस शिर—ऊर्ध्वस्थान—आधार—इन्द्र ऐश्वर्यवान् परमात्मा को (इच्छन्) उपासक चाहता हुआ (पर्वतेषु-अपश्रितम्) पर्व वाले योगाङ्गों में*60 योगभूमियों में पहुँचा हुआ (तत्) उसको (शर्यणावति विदत्) उपासक ने शर्यणावत्—धनुष पर प्राप्त किया है—करता है। वह धनुष है प्रणव—ओ३म्*61। ओ३म् धनुष पर अपने आत्मा शर को चढ़ा देता है। ब्रह्म जो प्रणव ओ३म् का वाच्य लक्ष्य है, उसे प्राप्त करता है॥२॥
टिप्पणी -
[*59. “जागतोऽश्वः प्राजापत्यः” [तै॰ ३.८.८.४]।] [*60. “तप्पर्वमरुद्भ्याम्” [अष्टा॰ ५.२.१२२ वा॰]।] [*61. शर—बाण का लोहफलक, शर्य—फलकसहित बाण, शर्यणा—बाण को फेंकने के लिए झुकी ज्या—तांत या डोरी, शर्यणावत्—उससे युक्त धनुष “प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते” [मुण्डको॰ २.२.४]।]
विशेष - <br>
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