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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 914
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    43

    इ꣣च्छ꣡न्नश्व꣢꣯स्य꣣ य꣢꣫च्छिरः꣣ प꣡र्व꣢ते꣣ष्व꣡प꣢श्रितम् । त꣡द्वि꣢दच्छर्य꣣णा꣡व꣢ति ॥९१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣡च्छ꣢न् । अ꣡श्व꣢꣯स्य । यत् । शि꣡रः꣢꣯ । प꣡र्वते꣢꣯षु । अ꣡प꣢꣯श्रितम् । अ꣡प꣢꣯ । श्रि꣣तम् । त꣢त् । वि꣣दत् । शर्यणा꣡व꣢ति ॥९१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इच्छन्नश्वस्य यच्छिरः पर्वतेष्वपश्रितम् । तद्विदच्छर्यणावति ॥९१४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इच्छन् । अश्वस्य । यत् । शिरः । पर्वतेषु । अपश्रितम् । अप । श्रितम् । तत् । विदत् । शर्यणावति ॥९१४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 914
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः जगदीश्वर का कर्म वर्णित है।

    पदार्थ

    इन्द्र जगदीश्वर (अश्वस्य) अन्तरिक्ष में व्याप्त बादल के (पर्वतेषु) पहाड़ों पर (अपश्रितम्) गिरे हुए (यत्) जिस (शिरः) जीर्ण-शीर्ण जल को (इच्छन्) फिर से भाप बनाना चाहता है (तत्) उस जल को वह (शर्यणावति)नदियों से युक्त समुद्र में (विदत्) पा लेता है। अभिप्राय यह है कि जो बादल का जल भूमि पर बरस कर नदियों द्वारा समुद्र में चला जाता है, उसे फिर वह सूर्य द्वारा भाप बनाकर अन्तरिक्ष में ले जाकर बादल के रूप में परिणत कर देता है ॥२॥

    भावार्थ

    बादल से वर्षा और बरसे हुए जल से फिर बादल का निर्माण इस चक्र को जगदीश्वर ही चला रहा है। यदि ऐसी उसकी की हुई सुव्यवस्था न होती तो यह भूमण्डल शुष्क एवं वृक्ष-ओषधि-लता आदि से विहीन हो जाता ॥२॥ इस मन्त्र पर सायणाचार्य द्वारा प्रोक्त इतिहास एवं उसका प्रत्याख्यान पूर्वार्चिक मन्त्र क्रमाङ्क १७९ के भाष्य में देखना चाहिए ॥

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    पदार्थ

    (अश्वस्य) गतिशील संसार या जगत् के*59 (यत्-शिरः) जिस शिर—ऊर्ध्वस्थान—आधार—इन्द्र ऐश्वर्यवान् परमात्मा को (इच्छन्) उपासक चाहता हुआ (पर्वतेषु-अपश्रितम्) पर्व वाले योगाङ्गों में*60 योगभूमियों में पहुँचा हुआ (तत्) उसको (शर्यणावति विदत्) उपासक ने शर्यणावत्—धनुष पर प्राप्त किया है—करता है। वह धनुष है प्रणव—ओ३म्*61। ओ३म् धनुष पर अपने आत्मा शर को चढ़ा देता है। ब्रह्म जो प्रणव ओ३म् का वाच्य लक्ष्य है, उसे प्राप्त करता है॥२॥

    टिप्पणी

    [*59. “जागतोऽश्वः प्राजापत्यः” [तै॰ ३.८.८.४]।] [*60. “तप्पर्वमरुद्भ्याम्” [अष्टा॰ ५.२.१२२ वा॰]।] [*61. शर—बाण का लोहफलक, शर्य—फलकसहित बाण, शर्यणा—बाण को फेंकने के लिए झुकी ज्या—तांत या डोरी, शर्यणावत्—उससे युक्त धनुष “प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते” [मुण्डको॰ २.२.४]।]

    विशेष

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    विषय

    शर्यणावत् प्रदेश में प्रभु-दर्शन

    पदार्थ

    (शक्तिशाली)–कर्मों में व्याप्त रहनेवाला पुरुष 'अश्व' कहलाता है। गोतम राहूगण-प्रशस्तेन्द्रिय त्यागशील व्यक्ति (अश्वस्य) = अश्व के (शिरः) = मस्तिष्क को (इच्छन्) = चाहता हुआ (पर्वतेषु) = पञ्च पर्वोंवाली अविद्या के पर्वों के कारण (अपश्रितम्) = दूर स्थित (यत्) = जो आत्मतत्त्व है (तत्) = उसे (शर्यणावति) = हृदयान्तरिक्ष में [शर्यणो अन्तरिक्षदेश: तस्य अदूरभवे—ऋ० १.८४.१४ पर द०] (विदत्) = प्राप्त करता है।

    १. ‘अश्व' शब्द कर्म का संकेत कर रहा है, ‘शिर: ' ज्ञान का और ‘इच्छन्’ सङ्कल्प या भक्ति का। इस प्रकार हमारे जीवनों में 'भक्ति, ज्ञान और कर्म' का समन्वय होता है, तभी आत्मतत्त्व का दर्शन होता है। २. यह आत्मतत्त्व अविद्या के कारण हमसे छिपा हुआ है। अविद्या पाँच पर्वोंवाली है। अविद्या के ये पाँच पर्व प्रभु को हमसे दूर रख रहे हैं— प्रभु इन पर्वों के कारण हमसे अपश्रित - दूर स्थित हैं। ३. इस प्रभु का दर्शन हमें उस हृदयावकाश में होगा जिसमें से वासनाओं का हिंसन कर दिया गया है। इस हिंसन- विशरण के कारण ही [शृ हिंसायाम् ] हृदयदेश को 'शर्यणावान्' नाम दिया गया है ।

    भावार्थ

    हम अपने जीवनों में 'भक्ति, ज्ञान व कर्म' का समन्वय करें और अविद्या को दूर करके वासनाशून्य हृदय में प्रभु का दर्शन करें ।
     

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    विषय

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    भावार्थ

    (पर्वतेषु) पोरुओं वाले मेरुदण्ड के मोहरों में (अपश्रितं) स्थित (अश्वस्य) शरीर में व्यापक, आत्मा का यत् जो (शिरः) मुख्य अंश है उसको (इच्छन्) चाहता हुआ (इन्द्रः) आत्मा (शर्यणावति) हृदय-देश में (तद्) उसको (विदद्) प्राप्त करता है। मधुविद्या या ब्रह्मविद्या का उपदेश करने वाला दधीचि का शिर अश्वियों ने काट दिया, वह शर्यणावत् तालब में पड़ा था। उसको इन्द्र ने अपना वज्र बनाने के निमित्त उसी स्थान पर पाया। ऐसी कथा प्रसिद्ध है। इस अलंकार में ध्यान धारणा से सम्पन्न योगी आत्मा दधीचि है। उसका ब्रह्मज्ञानोपदेशक शिरोभाग जो प्राण और उदान को ठीक गति का शिक्षण करता है मस्तक भाग में है। काम क्रोधादि पर वश करने वाला इन्द्र आत्मा उसी चित् केन्द्र की खोज करता है जिसके प्राण और अपान वश में हैं। वह उसको मध्य मस्तक में पाता है और ८१० प्रकार की मनोवृत्तियों पर वश करता है। यह अलंकार है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ आकृष्टामाषाः। २ अमहीयुः। ३ मेध्यातिथिः। ४, १२ बृहन्मतिः। ५ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ६ सुतंभर आत्रेयः। ७ गृत्समदः। ८, २१ गोतमो राहूगणः। ९, १३ वसिष्ठः। १० दृढच्युत आगस्त्यः। ११ सप्तर्षयः। १४ रेभः काश्यपः। १५ पुरुहन्मा। १६ असितः काश्यपो देवलो वा। १७ शक्तिरुरुश्च क्रमेण। १८ अग्निः। १९ प्रतर्दनो दैवोदासिः। २० प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः स्तौ तयोर्वान्यतरः। देवता—१—५, १०–१२, १६-१९ पवमानः सोमः। ६, २० अग्निः। ७ मित्रावरुणो। ८, १३-१५, २१ इन्द्रः। ९ इन्द्राग्नी ॥ छन्द:—१,६, जगती। २–५, ७–१०, १२, १६, २० गायत्री। ११ बृहती सतोबृहती च क्रमेण। १३ विराट्। १४ अतिजगती। १५ प्रागाधं। १७ ककुप् च सतोबृहती च क्रमेण। १८ उष्णिक्। १९ त्रिष्टुप्। २१ अनुष्टुप्। स्वरः—१,६, १४ निषादः। २—५, ७—१०, १२, १६, २० षड्जः। ११, १३, १५, १७ मध्यमः। १८ ऋषभः। १९ धैवतः। २१ गान्धारः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनर्जगदीश्वरकर्म वर्णयति।

    पदार्थः

    इन्द्रः जगदीश्वरः (अश्वस्य) अन्तरिक्षे व्याप्तस्य मेघस्य (पर्वतेषु) शैलेषु (अपश्रितम्) पतितम् (यत् शिरः) शीर्णम् उदकम् (इच्छन्) पुनः वाष्पतां नेतुम् वाञ्छन् भवति (तत्) उदकम् सः (शर्यणावति) शर्यणाः नद्यः शृणन्ति कूलानि तद्वान् शर्यणावान् समुद्रः तस्मिन् समुद्रे (विदत्) लभते। यन्मेघोदकं भूमौ पतित्वा नदीभिः समुद्रं गच्छति तज्जगदीश्वरः पुनरपि वाष्पीकृत्यान्तरिक्षं नीत्वा मेघरूपेण परिणमयतीति भावः ॥२॥२

    भावार्थः

    मेघाद् वृष्टिर्वृष्टाज्जलाच्च पुनर्मेघ इति चक्रं जगदीश्वर एव चालयति। यदीदृशी तत्कृता सुव्यवस्था नाभविष्यत् तर्हि भूमण्डलमिदं शुष्कं वृक्षौषधिलतादिविहीनं चावर्तिष्यत ॥२॥ एतन्मन्त्रविषयकः सायणाचार्यप्रोक्त इतिहासस्तत्प्रत्याख्यानं च पूर्वार्चिके १७९ संख्यकमन्त्रस्य भाष्ये द्रष्टव्यम् ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १।८४।१४, अथ० २०।४१।२। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमेतं ‘यथा सूर्योऽन्तरिक्षमाश्रितं मेघं छित्त्वा भूमौ निपातयति तथैव पर्वतदुर्गाश्रितमपि शत्रुं हत्वा भूमौ निपातयेत्’ इति विषये व्याख्यातवान्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Longing for Its chief characteristic, hidden in inaccessible recesses, the soul finds it in the heart.

    Translator Comment

    ‘Chief Characteristic* means the true nature of the soul i.e. eternity. Griffith translates Saryanavana as the name of a lake in Kurukshetra, near the modern Delhi. This interpretation is inadmissible as it involves history, but the Vedas are free from it. The word means heart. The verse may also refer to the teacher and his disciple.

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    Meaning

    Just as the sun reaches and breaks the densest concentrations of vapours in the clouds fast moving in the regions of the sky, so should the ruler know the best part of his fastest forces stationed on the mountains and of the enemy forces lurking around and in the forests if he desires victory. (Rg. 1-84-14)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अश्वस्य) ગતિશીલ સંસાર અથવા જગતના (यत् शिरः) જે શિર-ઊર્ધ્વસ્થાન-આધાર-ઇન્દ્ર ઐશ્વર્યવાન પરમાત્માને (इच्छन्) ઉપાસક ઇચ્છા કરીને (पर्वतेषु अपश्रितम्) પર્વવાળા યોગના અંગોમાં યોગ-ભૂમિઓમાં પહોંચીને (तत्) તેને (शर्यणावति विदित्) ઉપાસકે શર્યણાવત્ =ધનુષ્ય પર પ્રાપ્ત કરેલ છે-કરે છે. તે ધનુષ્ય પ્રણવ-ओ३म् છે. ओ३म्-ધનુષ્ય પર પોતાનો આત્મા શર = બાણને ચડાવી દે છે. બ્રહ્મને પ્રણવ-ઓમ્ નો વાચ્ય છે, તેને પ્રાપ્ત કરે છે. (૨)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मेघातून वृष्टी व पुन्हा जलाने मेघनिर्मिती हे चक्र जगदीश्वरच चालवितो. जर त्याची अशी सुव्यवस्था नसती तर हे भूमंडल शुष्क व वृक्ष-औषधी लता इत्यादींनी विहीन झाले असते. ॥२॥

    टिप्पणी

    या मंत्रावर सायणाचार्याद्वारे प्रोक्त इतिहास व त्याचे प्रत्याख्यान पूर्वार्चिक मंत्र क्रमांक १७९ च्या भाष्यात पाहिले पाहिजे.

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