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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1825
ऋषिः - अग्निः प्रजापतिः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
अ꣣ग्नि꣡रिन्द्रा꣢꣯य पवते दि꣣वि꣢ शु꣣क्रो꣡ वि रा꣢꣯जति । म꣡हि꣢षीव꣣ वि꣡ जा꣢यते ॥१८२५
स्वर सहित पद पाठअ꣣ग्निः꣢ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । प꣣वते । दिवि꣢ । शु꣣क्रः꣢ । वि । रा꣣जति । म꣡हि꣢꣯षी । इ꣣व । वि꣢ । जा꣣यते ॥१८२५॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निरिन्द्राय पवते दिवि शुक्रो वि राजति । महिषीव वि जायते ॥१८२५
स्वर रहित पद पाठ
अग्निः । इन्द्राय । पवते । दिवि । शुक्रः । वि । राजति । महिषी । इव । वि । जायते ॥१८२५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1825
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
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Meaning -
The soul, for the attainment of God, purified through discernment goes unto Him. The soul shines far resplendent in salvation. The soul manifests itself in different forms, just as a queen presents her-self to her subjects in different apparels.
Translator Comment -
$ Some Commentators have translated महिषि as a buffalo-cow. Just as a buffalo gives us milk and butter, eating grass, so does the soul make the stream of joy flow for us.