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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 21

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 21/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - छन्दांसि छन्दः - एकावसाना द्विपदा साम्नी बृहती सूक्तम् - छन्दासि सूक्त

    गा॑य॒त्र्युष्णिग॑नु॒ष्टुब्बृ॑ह॒ती प॒ङ्क्तिस्त्रि॒ष्टुब्जग॑त्यै ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गा॒य॒त्री। उ॒ष्णिक्। अ॒नु॒ऽस्तुप्। बृ॒ह॒ती। प॒ङ्क्ति। त्रि॒ऽस्तुप्। जग॑त्यै ॥२१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहती पङ्क्तिस्त्रिष्टुब्जगत्यै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गायत्री। उष्णिक्। अनुऽस्तुप्। बृहती। पङ्क्ति। त्रिऽस्तुप्। जगत्यै ॥२१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 21; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (गायत्री) गायत्री [गाने योग्य] (उष्णिक्) उष्णिक् [बड़े स्नेहवाली] (बृहती) बृहती [बढ़ती हुई], (पङ्क्तिः) पङ्क्ति [विस्तारवाली], (त्रिष्टुप्) [तीन कर्म, उपासना, ज्ञान से सत्कार की गयी], (अनुष्टुप्) अनुष्टुप् [निरन्तर पूजने योग्य वेदवाणी] (जगत्यै) जगती [चलते हुए जगत् के हित के लिये] है ॥१॥

    भावार्थ - मनुष्यों को परमेश्वरोक्त वेदवाणी द्वारा कर्म, उपासना और ज्ञान में तत्पर होकर संसार का हित करना चाहिये ॥१॥

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