Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 45

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 45/ मन्त्र 2
    सूक्त - भृगुः देवता - आञ्जनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - आञ्जन सूक्त

    यद॒स्मासु॑ दुः॒ष्वप्न्यं॒ यद्गोषु॒ यच्च॑ नो गृ॒हे। अना॑मग॒स्तं च॑ दु॒र्हार्दः॑ प्रि॒यः प्रति॑ मुञ्चताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। अ॒स्मासु॑। दुः॒ऽस्वप्न्य॑म्। यत्। गोषु॑। यत्। च॒। नः॒। गृ॒हे। अना॑मगः। तम्। च॒। दुः॒ऽहार्दः॑। प्रि॒यः। प्रति॑। मु॒ञ्च॒ता॒म् ॥४५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदस्मासु दुःष्वप्न्यं यद्गोषु यच्च नो गृहे। अनामगस्तं च दुर्हार्दः प्रियः प्रति मुञ्चताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। अस्मासु। दुःऽस्वप्न्यम्। यत्। गोषु। यत्। च। नः। गृहे। अनामगः। तम्। च। दुःऽहार्दः। प्रियः। प्रति। मुञ्चताम् ॥४५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 45; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (यत्) जो (दुःष्वप्न्यम्) दुष्ट स्वप्न (अस्मासु) हममें (यत्) जो (गोषु) गौओं में (च) और (यत्) जो (नः) हमारे (गृहे) घर में है। (च) और (दुर्हार्दः) दुष्ट हृदयवाले का (अनामगः) अनामय [स्वास्थ्य] है, (तम्) उसको [भी] (प्रियः) [हमारा] प्रिय (प्रति) प्रतिकूल (मुञ्चताम्) छोड़े ॥२॥

    भावार्थ - यदि दुष्ट लोग धर्मात्माओं के साथ पीड़ाजनक व्यवहार करें, तो उनको उसका यथोचित दण्ड दिया जावे ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top