अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 58/ मन्त्र 3
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - यज्ञः, मन्त्रोक्ताः
छन्दः - चतुष्पदातिशक्वरी
सूक्तम् - यज्ञ सूक्त
वर्च॑सो द्यावापृथि॒वी सं॒ग्रह॑णी बभू॒वथु॒र्वर्चो॑ गृहीत्वा पृथि॒वीमनु॒ सं च॑रेम। य॒शसं॒ गावो॒ गोप॑ति॒मुप॑ तिष्ठन्त्याय॒तीर्यशो॑ गृही॒त्वा पृ॑थि॒वीमनु॒ सं च॑रेम ॥
स्वर सहित पद पाठवर्च॑सः। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। सं॒ग्रह॑णी॒। इति॑ स॒म्ऽग्रह॑णी। ब॒भू॒वथुः॑। वर्चः॑। गृ॒ही॒त्वा। पृ॒थि॒वीम्। अनु॑। सम्। च॒रे॒म॒। य॒शस॑म्। गावः॑। गोऽप॑तिम्। उप॑। ति॒ष्ठ॒न्ति॒। आ॒ऽय॒तीः। यशः॑। गृ॒ही॒त्वा। पृ॒थि॒वीम्। अनु॑। सम्। च॒रे॒म॒ ॥५८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
वर्चसो द्यावापृथिवी संग्रहणी बभूवथुर्वर्चो गृहीत्वा पृथिवीमनु सं चरेम। यशसं गावो गोपतिमुप तिष्ठन्त्यायतीर्यशो गृहीत्वा पृथिवीमनु सं चरेम ॥
स्वर रहित पद पाठवर्चसः। द्यावापृथिवी इति। संग्रहणी। इति सम्ऽग्रहणी। बभूवथुः। वर्चः। गृहीत्वा। पृथिवीम्। अनु। सम्। चरेम। यशसम्। गावः। गोऽपतिम्। उप। तिष्ठन्ति। आऽयतीः। यशः। गृहीत्वा। पृथिवीम्। अनु। सम्। चरेम ॥५८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 58; मन्त्र » 3
विषय - आत्मा की उन्नति का उपदेश।
पदार्थ -
(द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवी तुम दोनों (वर्चसः) तेज के (संग्रहणी) संग्रह करनेवाले (बभूवथुः) हुए हो, (वर्चः) तेज को (गृहीत्वा) ग्रहण करके (पृथिवीम् अनु) पृथिवी पर (सम् चरेम) हम विचरें। (आयतीः) आती हुईं (गावः) गौएँ (यशसम्) अन्नवाले (गोपतिम्) गोपति [गौओं के स्वामी] को (उप तिष्ठन्ति) सेवती हैं, (यशः) अन्न (गृहीत्वा) ग्रहण करके (पृथिवीम् अनु) पृथिवी पर (सम् चरेम) हम विचरें ॥३॥
भावार्थ - मनुष्य सूर्य और पृथिवी के समान बली होकर संसार में उपकार करें, और जैसे गौ आदि पशु अन्न आदि देनेवाले अपने स्वामी की सेवा करते हैं, वैसे ही मनुष्य अन्न आदि से अपने पोषकों की सेवा करें ॥३॥
टिप्पणी -
३−(वर्चसः) तेजसः (द्यावापृथिवी) सूर्यपृथिव्यौ (संग्रहणी) संग्रहण्यौ। दात्र्यौ (बभूवथुः) (वर्चः) तेजः (गृहीत्वा) अवलम्ब्य (पृथिवीम्) (संचरेम) विचरेम (यशसम्) यशः=अन्नम्-निघ० २।७। अर्शआद्यच्। अन्नवन्तम् (गावः) धेनवः (गोपतिम्) गवां स्वामिनम् (उपतिष्ठन्ति) सेवन्ते (आयतीः) आगच्छन्त्यः। अन्यद् गतम् ॥