अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 16/ मन्त्र 2
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - प्राणः, अपानः, आयुः
छन्दः - एदपदासुरी उष्णिक्
सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
द्यावा॑पृथिवी॒ उप॑श्रुत्या मा पातं॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठद्यावा॑पृथिवी॒ इति॑ । उप॑ऽश्रुत्या । मा॒ । पा॒त॒म् । स्वाहा॑ ॥१६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
द्यावापृथिवी उपश्रुत्या मा पातं स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठद्यावापृथिवी इति । उपऽश्रुत्या । मा । पातम् । स्वाहा ॥१६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
विषय - आत्मरक्षा के लिये उपदेश।
पदार्थ -
(द्यावापृथिवी=०–व्यौ) हे आकाश और [पृथिवी !] दोनों (उपश्रुत्या) पूर्ण श्रवणशक्ति के साथ (मा) मेरी (पातम्) रक्षा करो, (स्वाहा) यह सुवाणी [सुन्दर आशीर्वाद] हो ॥२॥
भावार्थ - सब दिशाओं में मनुष्य को अपनी श्रवणशक्ति बढ़ानी चाहिये ॥२॥
टिप्पणी -
२–द्यावापृथिवी। अ० २।१।४। हे आकाशभूमी ! तदन्तरालवर्तिन्यो दिशो विवक्षिताः। उपश्रुत्या। उप+श्रु–क्तिन्, उपश्रूयते। समीपश्रवणेन पूर्णश्रवणशक्तिप्रदानेन। अन्यद् गतम् ॥